Friday, 9 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४५)

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं- समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ ७०॥

जैसे (सम्पूर्ण नदियोंका) जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है,
पर (समुद्र अपनी मर्यादामें) अचल स्थित रहता है,
 ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्यको (विकार उत्पन्न किये बिना ही) प्राप्त होते हैं,
वही मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंकी कामनावाला नहीं।

ॐ तत्सत् ! 

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