Monday, 5 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४३)


नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम्॥ ६६॥
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥ ६७॥
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ६८॥

जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्यकी व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती और (व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे) उस अयुक्त मनुष्यमें निष्कामभाव अथवा कर्तव्यपरायणताका भाव नहीं होता। निष्कामभाव न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है?
कारण कि (अपने-अपने विषयों में) विचरती हुई इन्द्रियों में से (एक ही इन्द्रिय) जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह (अकेला मन) जल में नौका को वायु की तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है।
इसलिये हे महाबाहो! जिस मनुष्यकी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे सर्वथा वशमें की हुई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।

व्याख्या—

कर्मयोगमें निष्कामभावकी मुख्यता है । निष्कामभावके लिये मन और इन्द्रियोंका संयम तथा एक निश्चेयवाली बुद्धिका होना आवश्यक है । अशान्तिका मूल कारण कामना है । जबतक मनुष्यके भीतर किसी प्रकारकी कामना है, तबतक उसे शान्ति नहीं मिल सकती । कामनायुक्त चित्त सदा अशान्त ही रहता है ।

जब तक साधक की बुद्धि एक उद्देश्य में दृढ़ नहीं होती, तबतक सम्पूर्ण इन्द्रियोंका तो कहना ही क्या है, एक ही इन्द्रिय मन को हर लेती है और मन बुद्धि को हरकर उसे भोगों में लगा देता है ।

ॐ तत्सत् !

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