Friday, 9 December 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.४६)

विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहङ्कार: स शान्तिमधिगच्छति॥ ७१॥

जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंतारहित होकर आचरण करता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है।

व्याख्या—

जब मनुष्य कामना, स्पृहा, ममता और अहंतासे छूूट जाता है, तब उसे अपने भीतर नित्य-निरन्तर स्थित रहनेवाली शान्तिका अनुभव होता हो जाता है । मूलमें अहंता ही मुख्य है । सबका त्याग करनेपर भी अहंता शेष रह जाती है, पर अहंताका त्याग होनेपर सबका त्याग हो जाता है । अहंतासे राग, रागसे आसक्ति, आसक्तिसे ममता और ममतासे कामना तथा कामनासे फिर अनेक प्रकारके विकारोंकी उत्पत्ति होती है । साधकके लिये पहले ममताका त्याग करना सुगम पड़ता है । ममताका त्याग होनेपर कामना, स्पृहा और अहंताका त्याग करनेकी सामर्थ्य आ जाती है । वास्तवमें हम, स्पृहा और अहंतासे रहित हैं । यदि हम इनसे रहित न होते तो कभी इनका त्याग न कर पाते और भगवान्‌ भी इनके त्यागकी बात नहीं कहते । सुषुप्तिमें अहंता आदिके अभावका अनुभव सबको होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता ।

मूलमें कामना, स्पृहा, ममता और अहंताकी सत्ता है ही नहीं- ‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) । हमारा स्वरूप चिन्मय सत्ता मात्र है । चिन्मय सत्तामात्रमें कामना, स्पृहा, और अहंता होनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता । ये कामना आदि जड़में ही रहते हैं, चेतनतक पहुँचते ही नहीं । चिन्मय सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है । कामना, स्पृहा आदि निरन्तर नहीं रहते, प्रत्युत बदलते रहते हैं-यह सबका अनुभव है । प्रत्येक जन्ममें कामना, स्पृहा आदि अलग-अलग थे । इस जन्ममें भी बचपनमें कामना, स्पृहा आदि अलग थे, अब अलग हैं । हम इन्हें छोड़ते और पकड़ते रहते हैं । पहले खिलौनोंकी कामना थी फिर रुपयोंकी कामना हो गयी । पहले माँमें ममता थी, फिर पत्नीमें ममता हो गयी । इस प्रकार कामना, स्पृहा, ममता आदिका आना-जाना, उत्पत्ति-विनाश, संयोग-वियोग, आरम्भ-अन्त आदि होता रहता है, पर सत्तामात्र स्वरूपका आना-जान आदि होता ही नहीं । जो वस्तु है ही नहीं, उसे हमने पकड़ लिय अर्थात्‌ उसे सत्ता और महत्त दे दी- यही हमारी सबसे बड़ी भूल है । इस भूलको मिटानेकी जिम्मेदारी हमपर ही है, तभी भगवान्‌ इनका त्याग करनेकी बात कहते हैं, अन्य्था जो है ही नहीं, उसका त्याग स्वतःसिद्ध है । जो स्वतः-सिद्ध है, उसे ही प्राप्त करना है । नया निर्माण कुछ नहीं करना है । नया निर्माण ही हमारे बन्धनका, दुःखोंका कारण बनता है ।

ॐ तत्सत् !

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