यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥ १७॥
परन्तु जो मनुष्य अपने-आप में ही रमण करनेवाला और अपने-आप में ही तृप्त तथा अपने-आप में ही सन्तुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।
व्याख्या—
जबतक परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नहीं हो जाती, तभी तक मनुष्यपर कर्तव्य-पालनकी जिम्मेदारी रहती है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर महापुरुष के लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । उसके संसारमें रहनेमात्रसे संसारका हित होता है ।
ॐ तत्सत् !
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥ १७॥
परन्तु जो मनुष्य अपने-आप में ही रमण करनेवाला और अपने-आप में ही तृप्त तथा अपने-आप में ही सन्तुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।
व्याख्या—
जबतक परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नहीं हो जाती, तभी तक मनुष्यपर कर्तव्य-पालनकी जिम्मेदारी रहती है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर महापुरुष के लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । उसके संसारमें रहनेमात्रसे संसारका हित होता है ।
ॐ तत्सत् !
No comments:
Post a Comment