तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष:॥ १९॥
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमहर्सि॥ २०॥
इसलिये तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्मका भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्ति-रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है ।
राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म (कर्म-योग)-के द्वारा ही परम-सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिये लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू (निष्काम-भावसे) कर्म करने के ही योग्य है अर्थात् अवश्य करना चाहिये ।
व्याख्या—
मनुष्य कर्मोंसे नहीं बँधता, प्रत्युत आसक्तिसे बँधता है । आसक्ति ही मनुष्यका पतन करती है, कर्म नहीं । आसक्ति रहित होकर दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त होकर परमात्त्व-तत्त्वको प्राप्त हो जाता है । कर्ममें परिश्रम और कर्म-योगमें विश्राम है । शरीरकी आवश्यकता परिश्रममें है, विश्राममें नहीं । कर्मयोगमें शरीरसे होनेवाला परिश्रम (कर्म) दूसरोंकी सेवाके लिये और विश्राम (योग) अपने लिये है ।
जनकादि राजाओंने भी कर्मयोगके द्वारा ही मुक्ति प्राप्त की थी । इससे सिद्ध होता है कि कर्मयोग मुक्तिका स्वतन्त्र साधन है ।
ॐ तत्सत् !
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष:॥ १९॥
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमहर्सि॥ २०॥
इसलिये तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्मका भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्ति-रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है ।
राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म (कर्म-योग)-के द्वारा ही परम-सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिये लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू (निष्काम-भावसे) कर्म करने के ही योग्य है अर्थात् अवश्य करना चाहिये ।
व्याख्या—
मनुष्य कर्मोंसे नहीं बँधता, प्रत्युत आसक्तिसे बँधता है । आसक्ति ही मनुष्यका पतन करती है, कर्म नहीं । आसक्ति रहित होकर दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त होकर परमात्त्व-तत्त्वको प्राप्त हो जाता है । कर्ममें परिश्रम और कर्म-योगमें विश्राम है । शरीरकी आवश्यकता परिश्रममें है, विश्राममें नहीं । कर्मयोगमें शरीरसे होनेवाला परिश्रम (कर्म) दूसरोंकी सेवाके लिये और विश्राम (योग) अपने लिये है ।
जनकादि राजाओंने भी कर्मयोगके द्वारा ही मुक्ति प्राप्त की थी । इससे सिद्ध होता है कि कर्मयोग मुक्तिका स्वतन्त्र साधन है ।
ॐ तत्सत् !
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