Tuesday, 27 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१३)

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:॥ १८॥

उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुष)-का इस संसारमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्म न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें (किसी भी प्राणीके साथ) इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता।

व्याख्या—

जैसे ‘करना’ प्रकृति के सम्बन्ध से है, ऐसे ‘न करना’ भी प्रकृति के सम्बन्ध से है । करना और न करना-दोनों सापेक्ष है, परन्तु तत्त्व निरपेक्ष है । इसलिये स्वयं (चिन्मय सत्तामात्र)- का न तो करनेके साथ सम्बन्ध है, न नहीं करनेके साथ सम्बन्ध है । करना, न करना तथा पदार्थ-ये सब उसी सत्तामात्रसे प्रकाशित होते हैं (गीता १३ । ३३) ।

कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें करनेका राग तथा पानेकी इच्छा सर्वथा नहीं रहती, इसलिये उसका न तो कुछ करनेसे मतलब रहता है, न कुछ नहीं करनेसे मतलब रहता है और न उसका किसी भी प्राणी-पदार्थसे कुछ पानेसे ही मतलब रहता है । तात्पर्य है कि उसका प्रकृति-विभागसे सर्वथा सम्बन्ध नहीं रहता ।

ॐ तत्सत् !

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