एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य:।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥ १६॥
हे पार्थ ! जो मनुष्य इस लोक में इस प्रकार (परम्परासे) प्रचलित सृष्टि-चक्र के अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है।
व्याख्या—
जो मनुष्य लोक-मर्यादा तथा शास्त्र-मर्यादाके अनुसार अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसे संसारमें जीनेका अधिकार नहीं है । कारण कि मनुष्योंके द्वारा अपने कर्तव्य्का पालन न करनेसे संसार मात्रको हानि पहूँचती है । वर्तमानमें जो अन्न, जल, वायु आदि प्रदूषित हो रहे हैं, अकाल, अनावृष्टि आदि प्राकृतिक आपदाएँ आ रही हैं, उसमें मनुष्य का कर्तव्य-च्युत होना ही प्रधान कारण है ।
अपने लिये कर्म करना अनधिकृत चेष्टा है । कारण कि जो कुछ मिला है, वह सब संसार की सामग्री है । शरीरादि सब पदार्थ संसारके ही हैं, अपने नहीं । अतः हम पर संसार का ऋण है; जिसे उतारने के लिये हमें सब कर्म संसार के हित के लिये ही करने हैं ।
ॐ तत्सत् !
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥ १६॥
हे पार्थ ! जो मनुष्य इस लोक में इस प्रकार (परम्परासे) प्रचलित सृष्टि-चक्र के अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है।
व्याख्या—
जो मनुष्य लोक-मर्यादा तथा शास्त्र-मर्यादाके अनुसार अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसे संसारमें जीनेका अधिकार नहीं है । कारण कि मनुष्योंके द्वारा अपने कर्तव्य्का पालन न करनेसे संसार मात्रको हानि पहूँचती है । वर्तमानमें जो अन्न, जल, वायु आदि प्रदूषित हो रहे हैं, अकाल, अनावृष्टि आदि प्राकृतिक आपदाएँ आ रही हैं, उसमें मनुष्य का कर्तव्य-च्युत होना ही प्रधान कारण है ।
अपने लिये कर्म करना अनधिकृत चेष्टा है । कारण कि जो कुछ मिला है, वह सब संसार की सामग्री है । शरीरादि सब पदार्थ संसारके ही हैं, अपने नहीं । अतः हम पर संसार का ऋण है; जिसे उतारने के लिये हमें सब कर्म संसार के हित के लिये ही करने हैं ।
ॐ तत्सत् !
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