Thursday, 22 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०७)

सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥ १०॥
देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥ ११॥
प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें कर्तव्य-कर्मोंके विधानसहित प्रजा (मनुष्य आदि)-की रचना करके (उनसे, प्रधानतया मनुष्योंसे) कहा कि तुमलोग इस कर्तव्यके द्वारा सबकी वृद्धि करो और यह (कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ) तुमलोगोंको कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला हो। इस (अपने कर्तव्य-कर्म)-के द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवतालोग (अपने कर्तव्यके द्वारा) तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।
व्याख्या—
अपने कर्तव्य का पालन करने से अर्थात्‌ दूसरों के लिये निष्कामभाव से कर्म करने से अपना तथा प्राणी मात्र का हित होता है । परन्तु अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे अपना तथा प्राणी मात्रका अहित होता है । कारण कि शरीरों की दृष्टि से तथा आत्मा की दृष्टिसे भी मात्र प्राणी एक हैं, अलग-अलग नहीं ।
मनुष्यशरीर केवल कल्याण-प्राप्तिके लिये ही मिला है । अतः अपना कल्याण करनेके लिये कोई नया काम करना आवश्यक नहीं है, प्रत्युत जो काम करते हैं, उसे ही फलेच्छा और आसक्ति का त्याग करके दूसरोंके हितके लिये करनेसे हमारा कल्याण हो जायगा ।
ॐ तत्सत् !

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