॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥ ३१॥
मुझमें एकीभावसे स्थित हुआ जो भक्तियोगी सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित मेरा भजन करता है, वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मुझमें ही बर्ताव कर रहा है अर्थात् वह नित्य-निरन्तर मुझमें ही स्थित है।
व्याख्या—
भगवान्का भक्त अपने शरीरके सहित सम्पूर्ण संसारको भगवान्का ही स्वरूप समझता है । इसलिये वह नित्य-निरन्तर भगवान्में ही रहता है और भगवान्में ही सब बर्ताव करता है । उसके भवमें ये पाँच बातें रहती हैं- (१) मैं भगवान्का ही हूँ, (२) मैं जहाँ भी रहता हूँ, भगवान्के दरबारमें ही रहता हूँ, (३) मैं जो भी शुभ कार्य करता हूँ, भगवान्का ही कार्य करता हूँ, (४) मैं शुद्ध-सात्त्विक जो भी पाता हूँ, भगवान्का ही प्रसाद पाता हूँ, और (५) भगवान्के दिये प्रसादसे भगवान्के ही जनोंकी सेवा करता हूँ । जैसे गंगाजलसे गंगाका पूजन किया जाय, ऐसे ही उस भक्तका बर्ताव भगवान्में ही होता है । जैसे शरीर से सम्बन्ध माननेवाल मनुष्य सब क्रियाएं करते हुए भी निरन्तर शरीरमें ही रहता है, ऐसे ही भक्त सब क्रियाएं करते हुए भी निरन्तर भगवान्में ही रहता है ।
ॐ तत्सत् !
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥ ३१॥
मुझमें एकीभावसे स्थित हुआ जो भक्तियोगी सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित मेरा भजन करता है, वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मुझमें ही बर्ताव कर रहा है अर्थात् वह नित्य-निरन्तर मुझमें ही स्थित है।
व्याख्या—
भगवान्का भक्त अपने शरीरके सहित सम्पूर्ण संसारको भगवान्का ही स्वरूप समझता है । इसलिये वह नित्य-निरन्तर भगवान्में ही रहता है और भगवान्में ही सब बर्ताव करता है । उसके भवमें ये पाँच बातें रहती हैं- (१) मैं भगवान्का ही हूँ, (२) मैं जहाँ भी रहता हूँ, भगवान्के दरबारमें ही रहता हूँ, (३) मैं जो भी शुभ कार्य करता हूँ, भगवान्का ही कार्य करता हूँ, (४) मैं शुद्ध-सात्त्विक जो भी पाता हूँ, भगवान्का ही प्रसाद पाता हूँ, और (५) भगवान्के दिये प्रसादसे भगवान्के ही जनोंकी सेवा करता हूँ । जैसे गंगाजलसे गंगाका पूजन किया जाय, ऐसे ही उस भक्तका बर्ताव भगवान्में ही होता है । जैसे शरीर से सम्बन्ध माननेवाल मनुष्य सब क्रियाएं करते हुए भी निरन्तर शरीरमें ही रहता है, ऐसे ही भक्त सब क्रियाएं करते हुए भी निरन्तर भगवान्में ही रहता है ।
ॐ तत्सत् !
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