Friday, 14 April 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.२५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥ ३२॥

हे अर्जुन! जो (भक्त) अपने शरीरकी उपमासे सब जगह मुझे समान देखता है और सुख अथवा दु:खको भी समान देखता है, वह परम योगी माना गया है।

व्याख्या—

जैसे सामान्य मनुष्य अपनेको शरीरमें देखता है और शरीरके सभी अंगोंको सुख पहुँचानेका तथा उनका दुःख (पीड़ा) दूर करनेका स्वाभाविक प्रयत्न करता है, वैसे ही सबमें भगवान्‌को देखनेवाला भक्त सभी प्राणियोंको सुख पहुँचानेकी तथा उनका दुःख दूर करनेकी स्वाभाविक चेष्टा करता है । ऐसा करनेमें उसके भीतर किंचिन्मात्र भी अभिमान नहीं होता ।

ॐ तत्सत् !

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