वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥ २१॥
हे पृथानन्दन ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये ?
व्याख्या—
शरीर की किसी भी क्रिया से शरीरी में किंचिन्मात्र भी कोई विकार उत्पन्न नहीं होता । अतः शरीरी किसी भी क्रिया का न तो कर्ता (तथा भोक्ता) बनता है, न कारयिता ही बनता है ।
ॐ तत्सत् !
कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥ २१॥
हे पृथानन्दन ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये ?
व्याख्या—
शरीर की किसी भी क्रिया से शरीरी में किंचिन्मात्र भी कोई विकार उत्पन्न नहीं होता । अतः शरीरी किसी भी क्रिया का न तो कर्ता (तथा भोक्ता) बनता है, न कारयिता ही बनता है ।
ॐ तत्सत् !
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