Friday, 28 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.१३)

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ २०॥

यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और अनादि है। शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।

व्याख्या—

उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना-ये छः विकार शरीरमें ही होते हैं । शरीरीमें ये विकार कभी हुए ही नहीं, कभी होंगे नहीं, कभी हो सकते ही नहीं ।

शरीरी कभी उत्पन्न नहीं होता-‘न जायते’, ‘अजः’; उत्पन्न होकर विकारी सत्तावाला नहीं होता-‘अयं भूत्वा भविता वा न भूय:’; यह बदलता नहीं- ‘शाश्वतः’; यह बढ़ता नहीं-‘पुराणः’, यह क्षीण नहीं होता-‘नित्यः’; और यह मरता नहीं-‘न म्रियते’, न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ ।

मुख्य विकार दो ही हैं-उत्पन्न होना और नष्ट होना । अतः प्रस्तुत श्लोकमें इस दोनों विकारोंका दो-दो बार निषेध किया गया है; जैसे-‘न जायते म्रियते’ और ‘अजः’, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ ।

ॐ तत्सत् !

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