प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ २७॥
सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकारसे मोहित अन्त:करणवाला अज्ञानी मनुष्य मैं कर्ता हूँ—ऐसा मान लेता है।
व्याख्या—
जड़-विभाग अलग है और चेतन-विभाग अलग है । क्रियामात्र जड़ प्रकृतिमें ही होती है । चेतनमें कभी कोई क्रिया होती ही नहीं-‘शरीरस्थो$पि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । क्रियाका आरम्भ और समाप्ति तथा पदार्थका आदि और अन्त होता है; परन्तु चेतनका न आरम्भ तथा समाप्ति होती है, न आदि तथा अन्त होता है ।
भगवान्ने गीतामें कर्मोंके होनेमें पाँच कारण बताये हैं-
(१) प्रकृति-‘प्रकृतेः क्रियमाणानि०’ (३ । २७), ‘प्रकृत्यैव च कर्माणि०’ (१३ । २९) ।
(२) गुण-‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (३ । २८), ‘नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं० (१४ । १९) ।
(३) इन्द्रियाँ-‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते’ (५ । ९) ।
(४) स्वभाव-(क्रियाका वेग)-‘स्वभावस्तु प्रवर्तते’ (५ । १४),‘प्रकृति यान्ति भूतानि०’ (३ । ३३) ।
(५) पाँच हेतु-‘अधिष्ठानं तथा कर्ता०’ (१८ । १४) ।
उपर्युक्त पाँचों का मूल कारण एक ‘अपरा प्रकृति’ (जड़-विभाग) ही है । आज तक अनेक योनियों में जीव ने जो भी कर्म किये हैं, उनमें से कोई भी कर्म तथा कोई भी शरीर स्वरूपतक नहीं पहुंचा । सूर्य तक अंधकार कैसे पहुँच सकता है ? कारण कि कर्म और शरीरादि पदार्थों का विभाग ही अलग है और स्वरूप का विभाग ही अलग है ।
ॐ तत्सत् !
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ २७॥
सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकारसे मोहित अन्त:करणवाला अज्ञानी मनुष्य मैं कर्ता हूँ—ऐसा मान लेता है।
व्याख्या—
जड़-विभाग अलग है और चेतन-विभाग अलग है । क्रियामात्र जड़ प्रकृतिमें ही होती है । चेतनमें कभी कोई क्रिया होती ही नहीं-‘शरीरस्थो$पि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । क्रियाका आरम्भ और समाप्ति तथा पदार्थका आदि और अन्त होता है; परन्तु चेतनका न आरम्भ तथा समाप्ति होती है, न आदि तथा अन्त होता है ।
भगवान्ने गीतामें कर्मोंके होनेमें पाँच कारण बताये हैं-
(१) प्रकृति-‘प्रकृतेः क्रियमाणानि०’ (३ । २७), ‘प्रकृत्यैव च कर्माणि०’ (१३ । २९) ।
(२) गुण-‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (३ । २८), ‘नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं० (१४ । १९) ।
(३) इन्द्रियाँ-‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते’ (५ । ९) ।
(४) स्वभाव-(क्रियाका वेग)-‘स्वभावस्तु प्रवर्तते’ (५ । १४),‘प्रकृति यान्ति भूतानि०’ (३ । ३३) ।
(५) पाँच हेतु-‘अधिष्ठानं तथा कर्ता०’ (१८ । १४) ।
उपर्युक्त पाँचों का मूल कारण एक ‘अपरा प्रकृति’ (जड़-विभाग) ही है । आज तक अनेक योनियों में जीव ने जो भी कर्म किये हैं, उनमें से कोई भी कर्म तथा कोई भी शरीर स्वरूपतक नहीं पहुंचा । सूर्य तक अंधकार कैसे पहुँच सकता है ? कारण कि कर्म और शरीरादि पदार्थों का विभाग ही अलग है और स्वरूप का विभाग ही अलग है ।
ॐ तत्सत् !
No comments:
Post a Comment