Tuesday, 3 January 2017

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.१७)


सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ॥ २५॥
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्॥ २६॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित तत्त्वज्ञ महापुरुष भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे। सावधान तत्त्वज्ञ महापुरुष कर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानी मनुष्योंकी बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न न करे, प्रत्युत स्वयं समस्त कर्मोंको अच्छी तरहसे करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाये।

व्याख्या—

यद्यपि ज्ञानी महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता-‘तस्य कार्य न विद्यते’ (गीता ३ । १७), तथापि भगवान्‌ उसे आज्ञा देते हैं कि वह लोकसंग्रहके लिये स्वयं भी सावधानी पूर्वक कर्तव्य-कर्म करे और कर्मोंमें आसक्त दूसरे मनुष्योंसे भी वैसे ही कर्तव्य-कर्म करवाये ।

ॐ तत्सत् !

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