अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमहर्सि॥ २६॥
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमहर्सि॥ २७॥
हे महाबाहो ! अगर तुम इस देही को नित्य पैदा होने वाला अथवा नित्य मरनेवाला भी मानो, तो भी तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये । कारण कि पैदा हुए की जरूर मृत्यु होगी और मरे हुए का जरूर जन्म होगा। अत: (इस जन्म-मरणरूप परिवर्तन के प्रवाह का) निवारण नहीं हो सकता। अत: इस विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
व्याख्या—
जो मिला है और बिछुड़ने वाला है, उस पर किसी का स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता । कारण कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु अपनी और अपने लिये नहीं होती, प्रत्युत संसार की और संसार के लिये ही होती है । उसका उपयोग केवल संसार की सेवा के लिये ही हो सकता है, अपने लिये नहीं ।
ॐ तत्सत् !
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमहर्सि॥ २६॥
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमहर्सि॥ २७॥
हे महाबाहो ! अगर तुम इस देही को नित्य पैदा होने वाला अथवा नित्य मरनेवाला भी मानो, तो भी तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये । कारण कि पैदा हुए की जरूर मृत्यु होगी और मरे हुए का जरूर जन्म होगा। अत: (इस जन्म-मरणरूप परिवर्तन के प्रवाह का) निवारण नहीं हो सकता। अत: इस विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
व्याख्या—
जो मिला है और बिछुड़ने वाला है, उस पर किसी का स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता । कारण कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु अपनी और अपने लिये नहीं होती, प्रत्युत संसार की और संसार के लिये ही होती है । उसका उपयोग केवल संसार की सेवा के लिये ही हो सकता है, अपने लिये नहीं ।
ॐ तत्सत् !
No comments:
Post a Comment