विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥ ५९॥
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:॥ ६०॥
निराहारी (इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेवाले) मनुष्य-के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस निवृत्त नहीं होता। परन्तु परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे इस स्थितप्रज्ञ मनुष्यका रस भी निवृत्त हो जाता है अर्थात् उसकी संसारमें रसबुद्धि नहीं रहती।
कारण कि हे कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहनेसे) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं।
व्याख्या—
भोगोंके प्रति सूक्ष्म आसक्तिका नाम ‘रस’ है । यह रस साधककी अहंतामें रहता है । जबतक यह रस रहता है, तबतक परमात्माका अलौकिक रस (प्रेम) प्रकट नहीं होता । इस रसबुद्धिके कारणही भोगोंकी पराधीनता रहती है । साधकके द्वारा भोगोंका त्याग करनेपर भी रसबुद्धि बनी रहती है, जिसके कारण भोगोंके त्यागका बड़ा महत्त्व दीखता है और अभिमान भी होता है कि मैंने भोगोंका त्याग कर दिया है ।
यद्यपि यह रस तत्त्वप्राप्तिके पहले भी नष्ट हो सकता है, तथापि तत्त्वप्राप्तिके बाद यह सर्वथा नष्ट हो ही जाता है ।
बुद्धिमान् साधकको अपनी इन्द्रियोंपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये । कारण कि जबतक अहंतामें रसबुद्धि पड़ी है, तबतक साधकका पतन होनेकी सम्भावना रहती है ।
ॐ तत्सत् !
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