Monday, 10 October 2016

गीता प्रबोधनी - पहला अध्याय (पोस्ट.०९)

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥ ३३॥
आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा:।
मातुला: श्वशुरा: पौत्रा: श्याला: सम्बन्धिनस्तथा॥ ३४॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते॥ ३५॥

जिनके लिये हमारी राज्य, भोग और सुखकी इच्छा है, वे ही ये सब अपने प्राणोंकी और धनकी आशाका त्याग करके युद्धमें खड़े हैं। आचार्य, पिता, पुत्र और उसी प्रकार पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा अन्य जितने भी सम्बन्धी हैं, मुझ पर प्रहार करने पर भी मैं इनको मारना नहीं चाहता और हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिये तो मैं इनको मारूँ ही क्या?

ॐ तत्सत् !

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