Saturday, 22 October 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.०७)

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥ १४॥

हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियोंके विषय (जड़ पदार्थ) तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता)-के द्वारा सुख और दु:ख देनेवाले हैं तथा आने-जानेवाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो।

व्याख्या—

संसारकी समस्त परिस्थितियाँ आने-जानेवाली, मिलने-बिछुड़नेवाली हैं । मनुष्य यह चाहता है कि सुखदायी परिस्थितिबनी रहे और दुःखदायी परिस्थिति न आये । परन्तु सुखदायी परिस्थिति जाती ही है और दःखदायी परिस्थिति आती ही है- यह प्राकृतिक नियम है अथवा प्रभुका मंगलमय विधान है । अतः साधकको प्रत्येक परिस्थिति प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करनी चाहिये । निरन्तर परिवर्तनशील वस्तुओंमें स्थिरता देखना भूल है । इस भूलसे ही ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है । देखनेमें वस्तु मुख्य दीखती है, क्रिया गौण । पर वास्तवमें क्रिया-ही-क्रिया है, वस्तु है ही नहीं ।

ॐ तत्सत् !

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