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Thursday, 3 December 2015

गीता के अठारहवें अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:- पार्वती! अब मैं अठारहवें अध्याय के माहात्म्य का वर्णन करता हूँ, परमानन्द को देने वाला अठारहवें अध्याय का यह पावन माहात्म्य जो समस्त वेदों से भी उत्तम है, इसे तुम श्रद्धा-पूर्वक श्रवण करो।
यह सम्पूर्ण शास्त्रों में सर्वश्रेष्ठ है, संसार के तीनों तापों से मुक्त करने वाला है, सिद्ध पुरुषों के लिए परम रहस्यमय है, अविद्या को सम्पूर्ण नष्ट करने वाला है। इसके निरन्तर पाठ करने वाले को यमदूत स्पर्श भी नहीं करते है, इससे बढ़कर कोई अन्य रहस्यमय उपदेश नहीं है, इसके सम्बन्ध में जो पवित्र उपाख्यान है, उसे भक्ति-भाव से श्रवण करो, इसके श्रवण मात्र से जीव समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।
मेरुगिरि के शिखर अमरावती नामवाली एक रमणीय पुरी थी, इसे पूर्वकाल में विश्वकर्मा ने बनाया था, इस पुरी में देवताओं और सेवकों के साथ इन्द्र देव अपनी पत्नी शची देवी के साथ राज्य किया करते थे। एक दिन इन्द्र देव सुख-पूर्वक बैठे हुए थे, इतने ही में उन्होंने देखा कि भगवान विष्णु के पार्षदों के साथ एक पुरुष वहाँ आ रहा है, इन्द्र देव उस नव-आगन्तुक पुरुष के तेज को सहन न करने के कारण अपने मुकुट सहित रत्न ज़डित सिंहासन से नीचे गिर पड़े।
यह देख इन्द्र के सेवकों ने उस मुकुट को नव आगन्तुक पुरुष के मस्तक पर आसीन कर दिया और उसे नया इन्द्र देव बना दिया, यह देख दिव्य गीत गाती हुई देवांगनाओं के साथ सभी देवता उनकी आरती उतारने लगे, ऋषियों ने वेद मंत्रों का उच्चारण करके उन्हें अनेक आशीर्वाद देने लगे, गन्धर्व मधुर स्वर में मंगलमय गान करने लगे।
इस नये इन्द्र देव को सौ अश्वमेघ यज्ञ किये बिना ही विभिन्न प्रकार के उत्सवों से सेवित देखकर पूर्व इन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ, वह सोचने लगा ‘इसने तो मार्ग में न कभी कोई प्याऊ बनवाई हैं, न कोई कुण्ड-तालाब खुदवाये है और न पथिकों को विश्राम करने के लिये छाया देने वाले वृक्ष ही लगवाये है। अकाल पड़ने पर अन्न दान के द्वारा इसने प्राणियों की सहायता भी नहीं की है, इसके द्वारा तीर्थों में यज्ञों का अनुष्ठान भी नहीं किया गया है फिर इसे यह इन्द्र पद कैसे प्राप्त हुआ?
इस चिन्ता से व्याकुल होकर पूर्व इन्द्र श्रीभगवान विष्णु से पूछने के लिए प्रेम पूर्वक क्षीर सागर के तट पर गया और वहाँ अकस्मात अपने साम्राज्य से निष्कासित होने का दुःख निवेदन करते हुए बोला:- ‘हे प्रभु! मैंने पूर्व काल में आपकी प्रसन्नता के लिए सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया था, उसी के पुण्य से मुझे इन्द्र पद की प्राप्ति हुई थी, किन्तु इस समय स्वर्ग में मेरे इन्द्र पद पर किसी दूसरे की नियुक्ति कर दी गई है, उसने न तो कभी धर्म का कार्य किया है और न ही यज्ञों का अनुष्ठान किया है तो हे प्रभु फिर उसे मेरे इन्द्र पद की प्राप्ति कैसे हुई है?’
श्रीभगवान बोलेः इन्द्र! वह श्री मद भगवदगीता के अठारहवें अध्याय में से पाँच श्लोकों का प्रतिदिन पाठ किया करता था, उसी के पुण्य से उसने तुम्हारे इस पद को प्राप्त कर लिया है, गीता के अठारहवें अध्याय का पाठ समस्त पुण्यों-कर्मों से श्रेष्ठ है, इसी का आश्रय लेकर तुम भी पुनः इन्द्र पद को प्राप्त कर सकते हो। 
श्रीभगवान के यह वचन सुनकर और इस उत्तम उपाय को जानकर पूर्व इन्द्र एक ब्राहमण का वेष धारण करके गोदावरी के तट पर पहुँच गया, वहाँ उसने कालिका ग्राम नामक उत्तम और पवित्र नगर देखा, जहाँ काल का भी मर्दन करने वाले भगवान कालेश्वर विराजमान हैं, वही गोदावरी तट पर एक धर्मात्मा ब्राह्मण रहते थे, जो बड़े ही दयालु और वेदों के पारंगत विद्वान थे।
वह ब्राहमण अपने मन को वश में करके प्रतिदिन गीता के अठारहवें अध्याय का पाठ किया करते थे। उन्हें देखकर पूर्व इन्द्र ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उनके चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम किया, और वह उन ब्राहमण से नित्य अठारहवें अध्याय को सुना करता था, एक दिन अठारहवें आध्याय के श्रवण से अर्जित पुण्य कर्म से उसे श्री भगवान विष्णु की कृपा से भगवान के परम वैकुण्ठ धाम में सायुज्य मुक्ति की प्राप्ति हुई। 
अठारहवें अध्याय के श्रवण मात्र से ही मनुष्य समस्त पापों से छुटकारा पा जाता है। जो पुरुष श्रद्धा-युक्त होकर इसका नित्य श्रवण या पाठन करता है, ऎसा व्यक्ति समस्त यज्ञों के फलों को प्राप्त कर अन्त में श्रीभगवान की परम कृपा को प्राप्त करता है।

गीता के सत्रह अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:- पार्वती! अब सत्रहवें अध्याय की अनन्त महिमा श्रवण करो, राजा खड्गबाहू के पुत्र का दुःशासन नाम का एक नौकर था, वह दुष्ट बुद्धि का मनुष्य था, एक बार वह राजकुमारों के साथ बहुत धन की बाजी लगाकर हाथी पर चढ़ा और कुछ ही कदम आगे जाने पर लोगों के मना करने पर भी वह मूढ हाथी के प्रति जोर-जोर से कठोर शब्द करने लगा।
उसकी आवाज सुनकर हाथी क्रोध से अंधा हो गया और दुःशासन को गिराकर काल के समान निरंकुश हाथी ने क्रोध से भरकर उसे ऊपर की ओर फेंक दिया, ऊपर से गिरते ही उसके प्राण निकल गये, इस प्रकार कालवश मृत्यु को प्राप्त होने के बाद उसे हाथी की योनि मिली और सिंहलद्वीप के महाराज के यहाँ उसने अपना बहुत समय व्यतीत किया।
सिंहलद्वीप के राजा की महाराज खड्गबाहु से बड़ी मैत्री थी, अतः उन्होंने जल के मार्ग से उस हाथी को मित्र की प्रसन्नता के लिए भेज दिया, एक दिन राजा ने कविता से संतुष्ट होकर किसी कवि को पुरस्कार रूप में वह हाथी दे दिया और कवि ने सौ स्वर्ण मुद्राएँ लेकर मालवनरेश को बेच दिया, कुछ समय व्यतीत होने पर वह हाथी यत्न पूर्वक पालित होने पर भी असाध्य ज्वर से ग्रस्त होकर मरणासन्न हो गया।
महावतों ने जब उसे ऐसी शोचनीय अवस्था में देखा तो राजा के पास जाकर हाथी के हित के लिए शीघ्र ही सारा हाल कह सुनाया "महाराज! आपका हाथी अस्वस्थ जान पड़ता है, उसका खाना, पीना और सोना सब छूट गया है, हमारी समझ में नहीं आता इसका क्या कारण है।"
महावतों का बताया हुआ समाचार सुनकर राजा ने हाथी के रोग को पहचान वाले चिकित्सा कुशल मंत्रियों के साथ उस स्थान पर भेजा जहाँ हाथी ज्वरग्रस्त होकर पड़ा था, राजा को देखते ही उसने ज्वर की वेदना को भूलकर संसार को आश्चर्य में डालने वाली वाणी में कहा।
'सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता, राजनीति के समुद्र, शत्रु-समुदाय को परास्त करने वाले तथा भगवान विष्णु के चरणों में अनुराग रखने वाले महाराज! इन औषधियों से क्या लेना है? वैद्यों से भी कुछ लाभ होने वाला नहीं है, दान ओर जप से भी क्या सिद्ध होगा? आप कृपा करके गीता के सत्रहवें अध्याय का पाठ करने वाले किसी ब्राह्मण को बुलवाइये।'
हाथी के कथन के अनुसार राजा ने सब कुछ वैसा ही किया, तदनन्तर गीता-पाठ करने वाले ब्राह्मण ने जब उत्तम जल को अभिमंत्रित करके उसके ऊपर डाला, तब दुःशासन गजयोनि का परित्याग करके मुक्त हो गया, राजा ने दुःशासन को दिव्य विमान पर आरूढ तथा इन्द्र के समान तेजस्वी देखकर पूछा 'पूर्वजन्म में तुम्हारी क्या जाति थी? क्या स्वरूप था? कैसे आचरण थे? और किस कर्म से तुम यहाँ हाथी होकर आये थे? ये सारी बातें मुझे बताओ।'
राजा के इस प्रकार पूछने पर संकट से छूटे हुए दुःशासन ने विमान पर बैठे-ही-बैठे स्थिरता के साथ अपना पूर्वजन्म का उपर्युक्त समाचार यथावत कह सुनाया। तत्पश्चात् नरश्रेष्ठ मालवनरेश ने भी गीता के सत्रहवें अध्याय पाठ करने लगे, इससे थोड़े ही समय में उनकी मुक्ति हो गयी।

गीता के सोलह अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:- पार्वती ! अब मैं गीता के सोलहवें अध्याय का माहात्म्य बताऊँगा, सुनो, गुजरात में सौराष्ट्र नामक एक नगर है, वहाँ खड्गबाहु नाम के राजा राज्य करते थे, जो इन्द्र के समान प्रतापी थे, उनका एक हाथी था, जो सदा मद से उन्मत्त रहता था, उस हाथी का नाम अरिमर्दन था।
एक दिन रात में वह साँकलों और लोहे के खम्भों को तोड़कर बाहर निकला, महावत उसको दोनों ओर अंकुश लेकर डरा रहे थे, किन्तु क्रोधवश उन सबकी अवहेलना करके उसने अपने रहने के स्थान हथिसार को गिरा दिया, उस पर चारों ओर से भालों की मार पड़ रही थी फिर भी महावत ही डरे हुए थे, हाथी को तनिक भी भय नहीं होता था।
इस कौतूहलपूर्ण घटना को सुनकर राजा स्वयं हाथी को मनाने की कला में निपुण राजकुमारों के साथ वहाँ आये, आकर उन्होंने उस बलवान हाथी को देखा, नगर के निवासी अन्य काम धंधों की चिन्ता छोड़ अपने बालकों को भय से बचाते हुए बहुत दूर खड़े होकर उस महाभयंकर गजराज को देखते रहे, उसी समय कोई ब्राह्मण तालाब से नहाकर उसी मार्ग से लौट रहा था, वे गीता के सोलहवें अध्याय के कुछ श्लोकों का जप कर रहा था।
पुरवासियों और महावतों ने बहुत मना किया, किन्तु ब्राह्मण ने किसी की न मानी, उसे हाथी से भय नहीं था, इसलिए वे चिन्तित नहीं हुआ, उधर हाथी अपनी चिंघाड़ से चारों दिशाओं को व्याप्त करता हुआ लोगों को कुचल रहा था, वे ब्राह्मण उसके बहते हुए मद को हाथ से छूकर निर्भयता से निकल गया, इससे वहाँ राजा तथा देखने वाले पुरवासियों के मन मे विस्मय हुआ।
राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछाः- 'ब्राह्मण! आज आपने यह महान अलौकिक कार्य किया है, क्योंकि इस काल के समान भयंकर गजराज के सामने से आप सकुशल लौट आये हैं, आप किस देवता का पूजन तथा किस मन्त्र का जप करते हैं? बताइये, आपने कौन-सी सिद्धि प्राप्त की है?
ब्राह्मण ने कहाः- राजन! मैं प्रतिदिन गीता के सोलहवें अध्याय के कुछ श्लोकों का जप किया करता हूँ, इसी से सारी सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं।
श्रीमहादेवजी कहते हैं:- तब हाथी का कौतूहल देखने की इच्छा छोड़कर राजा ब्राह्मण देवता को साथ ले अपने महल में आये, वहाँ शुभ मुहूर्त देखकर एक लाख स्वर्णमुद्राओं की दक्षिणा दे उन्होंने ब्राह्मण को संतुष्ट किया और उनसे गीता-मंत्र की दीक्षा ली, गीता के सोलहवें अध्याय के कुछ श्लोकों का अभ्यास कर लेने के बाद उनके मन में हाथी को छोड़कर उसके कौतुक देखने की इच्छा जागृत हुई।
एक दिन सैनिकों के साथ बाहर निकलकर राजा ने महावतों से उसी मत्त गजराज का बन्धन खुलवाया, वे निर्भय हो गये, राज्य का सुख-विलास के प्रति आदर का भाव नहीं रहा, वे अपना जीवन तृणवत् समझकर हाथी के सामने चले गये, साहसी मनुष्यों में अग्रगण्य राजा खड्गबाहु मन्त्र पर विश्वास करके हाथी के समीप गये।
मद की अनवरत धारा बहाते हुए उसके गण्डस्थल को हाथ से छूकर सकुशल लौट आये, काल के मुख से धार्मिक और खल के मुख से साधु पुरुष की भाँति राजा उस गजराज के मुख से बचकर निकल आये, नगर में आने पर उन्होंने अपने पुत्र राजकुमार को राज्य का कार्यभार सोंप कर स्वयं गीता के सोलहवें अध्याय का पाठ करके परम गति प्राप्त की।

Monday, 30 November 2015

गीता के पंद्रह अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:– पार्वती! अब गीता के पंद्रहवें अध्याय का माहात्म्य सुनो, गौड़ देश में कृपाण नामक एक राजा था, जिसकी तलवार की धार से युद्ध में देवता भी परास्त हो जाते थे, उसका बुद्धिमान सेनापति शस्त्र कलाओं में निपुण था, उसका नाम था सरभमेरुण्ड, उसकी भुजाओं में प्रचण्ड बल था, एक समय उस पापी ने राजकुमारों सहित महाराज का वध करके स्वयं ही राज्य करने का विचार किया।
इस निश्चय के कुछ ही दिनों बाद वह हैजे का शिकार होकर मर गया. थोड़े समय में वह पापात्मा अपने पूर्व कर्म के कारण सिन्धु देश में एक तेजस्वी घोड़ा हुआ, उसका पेट सटा हुआ था, घोड़े के लक्षणों का ठीक-ठाक ज्ञान रखने वाले किसी वैश्य पुत्र ने बहुत सा मूल्य देकर उस अश्व को खरीद लिया और यत्न के साथ उसे राजधानी तक ले आया, वैश्यकुमार वह अश्व राजा को देने को लाया था, यद्यपि राजा उस वैश्यकुमार से परिचित था, तथापि द्वारपाल ने जाकर उसके आगमन की सूचना दी।
राजा ने पूछाः- किसलिए आये हो? तब उसने स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया सिन्धु देश में एक उत्तम लक्षणों से सम्पन्न अश्व था, जिसे तीनों लोकों का एक रत्न समझकर मैंने बहुत सा मूल्य देकर खरीद लिया है,' राजा ने आज्ञा दी 'उस अश्व को यहाँ ले आओ,' वास्तव में वह घोड़ा गुणों में उच्चैःश्रवा के समान था, सुन्दर रूप का तो मानो घर ही था, शुभ लक्षणों का समुद्र जान पड़ता था, वैश्य घोड़ा ले आया और राजा ने उसे देखा, अश्व का लक्षण जानने वाले राजा के मंत्रीयों ने इसकी बड़ी प्रशंसा की।
सुनकर राजा अपार आनन्द में निमग्न हो गया और उसने वैश्य को मुँह माँगा सुवर्ण देकर तुरन्त ही उस अश्व को खरीद लिया, कुछ दिनों के बाद एक समय राजा शिकार खेलने के लिए उत्सुक हो उसी घोड़े पर चढ़कर वन में गया, वहाँ मृगों के पीछे उन्होंने अपना घोड़ा बढ़ाया, पीछे-पीछे सब ओर से दौड़कर आते हुए समस्त सैनिकों का साथ छूट गया, वे हिरनों द्वारा आकृष्ट होकर बहुत दूर निकल गया, प्यास ने उसे व्याकुल कर दिया, तब वे घोड़े से उतर कर जल की खोज करने लगा।
घोड़े को तो उन्होंने वृक्ष के तने के साथ बाँध दिया और स्वयं एक चट्टान पर चढ़ने लगा, कुछ दूर जाने पर उसने देखा कि एक पत्ते का टुकड़ा हवा से उड़कर शिलाखण्ड पर गिरा है, उसमें गीता के पंद्रहवें अध्याय का आधा श्लोक लिखा हुआ था, राजा उसे पढ़ने लगा, उस राजा के मुख से गीता के अक्षर सुनकर घोड़ा तुरन्त गिर पड़ा और अश्व शरीर को छोड़कर तुरंत ही दिव्य विमान पर बैठकर वह स्वर्गलोक को चला गया।
तत्पश्चात् राजा ने पहाड़ पर चढ़कर एक उत्तम आश्रम देखा, जहाँ नागकेशर, केले, आम और नारियल के वृक्ष लहरा रहे थे, आश्रम के भीतर एक ब्राह्मण बैठे हुए थे, जो संसार की वासनाओं से मुक्त थे, राजा ने उन्हे प्रणाम करके बड़े भक्ति के साथ पूछाः 'ब्रह्मन्! मेरा अश्व अभी-अभी स्वर्ग को चला गया है, इसका क्या कारण है?
राजा की बात सुनकर त्रिकालदर्शी, मंत्रवेत्ता और महापुरुषों में श्रेष्ठ विष्णु शर्मा नामक ब्राह्मण ने कहाः 'राजन! पूर्वकाल में तुम्हारे यहाँ जो सरभमेरुण्ड नामक सेनापति था, वह तुम्हें पुत्रों सहित मारकर स्वयं राज्य हड़प लेने को तैयार था, इसी बीच में हैजे का शिकार होकर वह मृत्यु को प्राप्त हो गया, उसके बाद वह उसी पाप से घोड़ा हुआ था, तुम्हें यहाँ गीता के पंद्रहवें अध्याय का आधा श्लोक लिखा मिल गया था, उसी को तुम्हारे मुख से सुनकर वह अश्व स्वर्ग को प्राप्त हुआ है।'
तदनन्तर राजा के सैनिक राजा को ढूँढते हुए वहाँ आ पहुँचे, उन सबके साथ ब्राह्मण को प्रणाम करके राजा प्रसन्नता पूर्वक वहाँ से चले और गीता के पंद्रहवें अध्याय के श्लोकाक्षरों से अंकित उसी पत्र को पढ़कर प्रसन्न होने लगे, उनके नेत्र हर्ष से खिल उठे थे, घर आकर उन्होंने मन्त्रवेत्ता मन्त्रियों के साथ अपने पुत्र सिंहबल को राज्य सिंहासन पर अभिषिक्त किया और स्वयं पंद्रहवें अध्याय के जप से विशुद्धचित्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लिया।

गीता के चौदह अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:– हे प्रिय! अब मैं संसार-बन्धन से छुटकारा पाने के लिये चौदहवें अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो! सिंहल द्वीप में विक्रम बैताल नामक एक राजा थे, जो सिंह के समान पराक्रमी और कलाओं के भण्डार थे, एक दिन वे शिकार खेलने के लिए उत्सुक होकर राजकुमारों सहित दो कुतियों को साथ लिए वन में गये, वहाँ पहुँचने पर उन्होंने तीव्र गति से भागते हुए खरगोश के पीछे अपनी कुतिया छोड़ दी, उस समय सब प्राणियों के सामने भागता हुआ खरगोश इस प्रकार आँखो से ओझल हो गया मानो कहीं उड़ गया हो।
दौड़ते-दौड़ते बहुत थक जाने के कारण वह एक कीचड़-युक्त गड्‍डे में गिर गया था, गड्‍डे में गिरने से वह खरगोश कुतिया की पकड़ में नहीं आ पाया और ऎसे स्थान पर जा पहुँचा जहाँ का वातावरण बहुत ही शान्त था, वहाँ हिरण निर्भय होकर सभी ओर वृक्षों की छाया में बैठे रहते थे, बंदर भी अपने आप टूट कर गिरे हुए नारियल के फलों और पके हुए आमों से पूर्ण तृप्त रहते थे, वहाँ सिंह हाथी के बच्चों के साथ खेलते और साँप निडर होकर मोर के पंखो में घुस जाते थे।
राजा जहाँ शिकार खेलने गया था उस स्थान पर एक आश्रम के भीतर वत्स नामक मुनि रहते थे, जो जितेन्द्रिय और शान्त-भाव से निरन्तर गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ किया करते थे, आश्रम के पास ही वत्स मुनि के किसी शिष्यों ने अपने पैर धोये थे वह भी नित्य गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ किया करते थे, पैर धोने वाले जल से वहाँ की मिट्टी गीली हो गयी थी, खरगोश का जीवन कुछ शेष था, वह थककर उसी कीचड़ में गिर गया था।
उस कीचड़ के स्पर्श मात्र से ही खरगोश दिव्य विमान पर बैठकर स्वर्ग-लोक को चला गया फिर कुतिया भी उसका पीछा करती हुई आयी तो वहाँ उसके शरीर में भी कीचड़ के कुछ छींटे लग गये जिस के कारण कुतिया भी अपना रूप त्यागकर एक दिव्यांगना का मनोहर रूप धारण करके गन्धर्वों से सुशोभित दिव्य विमान पर सवार होकर वह भी स्वर्गलोक को चली गयी, यह देखकर मुनि के शिष्य हँसने लगे, उन दोनों के पूर्वजन्म के वैर का कारण सोचकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ था, उस समय राजा भी आश्चर्य से चकित हो उठा।
आश्चर्य-चकित होकर राजा ने पूछा:- 'विप्रवर ! नीच योनि में पड़े हुए दोनों कुतिया और खरगोश ज्ञानहीन होते हुए भी जो स्वर्ग में चले गये, इसका क्या कारण है? इसकी कथा सुनाइये।'
एक शिष्य ने कहाः- राजन! इस वन में वत्स नामक ब्राह्मण रहते थे, वे बड़े जितेन्द्रिय महात्मा थे, गीता के चौदहवें अध्याय का सदा जप किया करते हैं, मैं उन्हीं का शिष्य हूँ, मैंने भी ब्रह्म-विद्या में विशेषज्ञता प्राप्त की है, गुरुजी की ही भाँति मैं भी चौदहवें अध्याय का प्रतिदिन जप करता हूँ, मेरे पैर धोने के जल के स्पर्श होने के कारण खरगोश को कुतिया के साथ स्वर्ग-लोक की प्राप्ति हुई है, अब मैं अपने हँसने का कारण बताता हूँ।
महाराष्ट्र में प्रत्युदक नामक महान नगर है, वहाँ केशव नामक एक ब्राह्मण रहता था, जो के मनुष्यों में कपटी स्वभाव का था, उसकी पत्नी का नाम विलोभना था, विलोभना स्वछन्द विहार करने वाली स्त्री थी, एक दिन क्रोध में आकर जन्म भर की दुश्मनी को याद करके ब्राह्मण ने अपनी स्त्री का वध कर डाला और उसी पाप से उसको खरगोश की योनि में जन्म मिला था, ब्राह्मणी भी अपने पाप के कारण कुतिया योनि को प्राप्त हुई, हे राजन्! चौदहवें अध्याय के पाठ करने के कारण ही ऎसा संभव हो सका है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
श्रीमहादेवजी कहते हैं:– यह सारी कथा सुनकर श्रद्धालु राजा ने गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ आरम्भ कर दिया, जिससे उसे भी परम-गति की प्राप्ति हुई।

गीता के तेरह अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:– पार्वती ! अब तेरहवें अध्याय की महिमा का वर्णन सुनो, उसको सुनने से तुम बहुत प्रसन्न हो जाओगी, दक्षिण दिशा में तुंगभद्रा नाम की एक बहुत बड़ी नदी है, उसके किनारे हरिहरपुर नामक रमणीय नगर बसा हुआ है, वहाँ हरिहर नाम से साक्षात् भगवान शिवजी विराजमान हैं, जिनके दर्शनमात्र से परम कल्याण की प्राप्ति होती है।
हरिहरपुर में हरि दीक्षित नामक एक श्रोत्रिय ब्राह्मण रहते थे, जो तपस्या और स्वाध्याय में संलग्न तथा वेदों के परम-विद्वान थे, उनकी एक स्त्री थी, जिसे लोग दुराचार कहकर पुकारते थे, इस नाम के अनुसार ही उसके कर्म भी थे, वह सदा पति को अपशब्द कहती थी, उसने कभी भी उनके साथ शयन नहीं किया, पति से सम्बन्ध रखने वाले जितने लोग घर पर आते, उन सबको डाँट-फ़ट्कार के भगा देती थी और स्वयं व्यभिचारियों के साथ रमण किया करती थी।
एक दिन नगर को इधर-उधर आते-जाते हुए लोगों से भरा देख उसने निर्जन तथा दुर्गम वन में अपने लिए संकेत स्थान बना लिया, एक समय रात में किसी कामी को न पाकर वह घर के किवाड़ खोल नगर से बाहर संकेत-स्थान पर चली गयी, वह काम के वशीभूत होकर एक-एक कुंज में तथा प्रत्येक वृक्ष के नीचे जा-जाकर किसी प्रियतम की खोज करने लगी, किन्तु उन सभी स्थानों पर उसका परिश्रम व्यर्थ गया, उसे प्रियतम का दर्शन नहीं हुआ, तब उस वन में नाना प्रकार की बातें कहकर विलाप करने लगी।
चारों दिशाओं में घूम-घूमकर विलाप करती हुई उस स्त्री की आवाज सुनकर कोई सोया हुआ बाघ जाग उठा और उस स्थान पर पहुँचा, जहाँ वह रो रही थी, उधर वह भी उसे आते देख किसी प्रेमी आशंका से उसके सामने खड़ी होने के लिए ओट से बाहर निकल आयी, उस समय व्याघ्र ने आकर उसे नाखुनों के प्रहार से पृथ्वी पर गिरा दिया, इस अवस्था में भी वह कठोर वाणी में चिल्लाती हुई पूछ बैठी 'अरे बाघ! तू किसलिए मुझे मारना चाहता है? पहले इन सारी बातों को बता दे, फिर मुझे मारना।'
उसकी यह बात सुनकर व्याघ्र हँसता हुआ बोला 'दक्षिण देश में मलापहा नामक एक नदी है, उसके तट पर मुनिपर्णा नगरी बसी हुई है, वहाँ पँचलिंग नाम से प्रसिद्ध साक्षात् भगवान शंकर निवास करते हैं, उसी नगरी में मैं ब्राह्मण के रूप में रहता था, नदी के किनारे अकेला बैठा रहता और जो यज्ञ के अधिकारी नहीं हैं, उन लोगों से भी यज्ञ कराकर उनका अन्न खाया करता था, इतना ही नहीं, धन के लोभ से मैं सदा अपने वेदपाठ के फल को बेचा करता था।
मेरा लोभ यहाँ तक बढ़ गया था कि अन्य भिक्षुओं को गालियाँ देकर हटा देता और स्वयं दूसरो को नहीं देने योग्य धन भी बिना दिये ही हमेशा ले लिया करता था, ऋण लेने के बहाने मैं सब लोगों को छला करता था, समय व्यतीत होने पर मैं बूढ़ा हो गया, मेरे बाल सफेद हो गये, आँखों से सूझता न था और मुँह के सारे दाँत गिर गये, इतने पर भी मेरी दान लेने की आदत नहीं छूटी, पर्व आने पर दान के लोभ से मैं हाथ में कुश लिए तीर्थ के समीप चला जाया करता था।
तत्पश्चात् जब मेरे सारे अंग शिथिल हो गये, तब एक बार मैं कुछ धूर्त ब्राह्मणों के घर पर माँगने-खाने के लिए गया, उसी समय मेरे पैर में कुत्ते ने काट लिया, तब मैं मूर्च्छित होकर क्षणभर में पृथ्वी पर गिर पड़ा, मेरे प्राण निकल गये, उसके बाद मैं इसी व्याघ्र योनि में उत्पन्न हुआ, तब से इस दुर्गम वन में रहता हूँ तथा अपने पूर्व पापों को याद करके कभी धर्मिष्ठ महात्मा, यति, साधु पुरुष तथा सती स्त्रियों को नहीं खाता, पापी-दुराचारी तथा कुलटा स्त्रियों को ही मैं अपना भक्ष्य बनाता हूँ, अतः कुलटा होने के कारण तू अवश्य ही मेरा ग्रास बनेगी।'
यह कहकर वह अपने कठोर नखों से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर के खा गया, इसके बाद यमराज के दूत उस पापिनी को संयमनी पुरी में ले गये, यहाँ यमराज की आज्ञा से उन्होंने अनेकों बार उसे विष्ठा, मूत्र और रक्त से भरे हुए भयानक कुण्डों में गिराया, करोड़ों कल्पों तक उसमें रखने के बाद उसे वहाँ से ले जाकर सौ मन्वन्तरों तक रौरव नरक में रखा, फिर चारों ओर मुँह करके दीन भाव से रोती हुई उस पापिनी को वहाँ से खींचकर दहनानन नामक नरक में गिराया।
उस समय उसके केश खुले हुए थे और शरीर भयानक दिखाई देता था, इस प्रकार घोर नरक यातना भोग चुकने पर वह महा पापिनी इस लोक में आकर चाण्डाल योनि में उत्पन्न हुई, चाण्डाल के घर में भी प्रतिदिन बढ़ती हुई वह पूर्वजन्म के अभ्यास से पूर्ववत् पापों में प्रवृत्त रही फिर उसे कोढ़ और राजयक्ष्मा का रोग हो गया, नेत्रों में पीड़ा होने लगी फिर कुछ काल के पश्चात् वह पुनः अपने निवास स्थान हरिहरपुर को गयी, जहाँ भगवान शिव के अन्तःपुर की स्वामिनी जम्भका देवी विराजमान हैं, वहाँ उसने वासुदेव नामक एक पवित्र ब्राह्मण का दर्शन किया, जो निरन्तर गीता के तेरहवें अध्याय का पाठ करता रहता था, उसके मुख से गीता का पाठ सुनते ही वह चाण्डाल शरीर से मुक्त हो गयी और दिव्य देह धारण करके स्वर्गलोक में चली गयी।

गीता के बारह अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं:– पार्वती! दक्षिण दिशा में कोल्हापुर नामक एक नगर है, जो सब प्रकार के सुखों का आधार, सिद्ध-महात्माओं का निवास स्थान तथा सिद्धि प्राप्ति का क्षेत्र है, वह भगवती लक्ष्मी की प्रधान पीठ है, वह पोराणिक प्रसिद्ध तीर्थ भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है, वहाँ करोड़ो तीर्थ और शिवलिंग हैं, रुद्रगया भी वहाँ है, वह विशाल नगर लोगों में बहुत विख्यात है।
एक दिन कोई युवक पुरुष नगर में आया, वह कहीं का राजकुमार था, उसके शरीर का रंग गोरा, नेत्र सुन्दर, कंधे मोटे, छाती चौड़ी तथा भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं, नगर में प्रवेश करके सब ओर महलों की शोभा निहारता हुआ वह देवेश्वरी महालक्ष्मी के दर्शन करने की इच्छा से मणिकण्ठ तीर्थ में गया और वहाँ स्नान करके उसने पितरों का तर्पण किया, फिर महामाया महालक्ष्मी जी को प्रणाम करके भक्ति पूर्वक स्तुति करना आरम्भ किया।
राजकुमार बोलाः- जिसके हृदय में असीम दया भरी हुई है, जो समस्त कामनाओं को पूर्ण करती है तथा अपने कटाक्ष मात्र से सारे जगत की रचना, पालन और संहार करती है, उस जगत की माता महालक्ष्मी की जय हो, जिस शक्ति के सहारे उसी के आदेश के अनुसार ब्रह्मा सृष्टि रचते हैं, भगवान विष्णु जगत का पालन करते हैं तथा भगवान शिव अखिल विश्व का संहार करते हैं, उस सृष्टि पालन और संहार की शक्ति से सम्पन्न भगवती का मैं भजन करता हूँ।
योगीजन तुम्हारे चरणकमलों का चिन्तन करते रहते हैं, तुम अपनी स्वाभाविक सत्ता से ही हमारे समस्त इन्द्रिय विषयों को जानती हो, तुम्हीं कल्पनाओं को तथा उसका संकल्प करने वाले मन को उत्पन्न करती हो, इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति ये सब तुम्हारे ही रूप हैं, तुम परमज्ञान रूपी हो तुम्हारा स्वरूप निष्काम, निर्मल, नित्य, निराकार, निरंजन, अनन्त, तथा निरामय है, तुम्हारी महिमा का वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है?
जो षट्चक्रों का भेदन करके अन्तःकरण के बारह स्थानों में विहार करती हैं, अनाहत, ध्वनि, बिन्दु, नाद और कला ये जिसके स्वरूप हैं, उस माता महालक्ष्मी को मैं प्रणाम करता हूँ, हे माता! तुम अपने मुख रूपी पूर्ण चन्द्रमा से प्रकट होने वाली अमृत की वर्षा करती हो, तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी नामक वाणी हो, मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ, तुम जगत की रक्षा के लिए अनेक रूप धारण किया करती हो,तुम्हीं ब्राह्मी, वैष्णवी, तथा माहेश्वरी शक्ति हो, वाराही, महालक्ष्मी, नरसिंही, कौमारी, चण्डिका, जगत को पवित्र करने वाली लक्ष्मी, सावित्री, चन्द्रकला तथा रोहिणी भी तुम्हीं हो, हे परमेश्वरी! तुम भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने के लिए कल्पलता के समान हो, कृपा करके मुझ पर प्रसन्न हो।
इस प्रकार स्तुति करने पर भगवती महालक्ष्मी अपना साक्षात् स्वरूप धारण करके बोलीं - 'राजकुमार! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम कोई वरदान माँगो।'
राजपुत्र बोलाः- माँ! मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध नामक महान यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे, वे दैवयोग से रोगग्रस्त होकर स्वर्गवासी हो गये, इसी बीच में बँधे हुए मेरे यज्ञ सम्बन्धी घोड़े को, जो समूची पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटा था, किसी ने रात्रि में बँधन काट कर कहीं अन्यत्र पहुँचा दिया, उसकी खोज में मैंने कुछ लोगों को भेजा था, किन्तु वे कहीं भी उसका पता न पाकर जब खाली हाथ लौट आये हैं, तब मैं गुरु की आज्ञा लेकर तुम्हारी शरण में आया हूँ, हे देवी! यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे यज्ञ का घोड़ा मुझे मिल जाये, जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके, तभी मैं अपने पिता का ऋण उतार सकूँगा, शरणागतों पर दया करने वाली जगजननी माता लक्ष्मी! जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके।
भगवती लक्ष्मी ने कहाः- राजकुमार! मेरे मन्दिर के दरवाजे पर एक ब्राह्मण रहते हैं, जो लोगों में सिद्धसमाधि के नाम से विख्यात हैं, वह मेरी आज्ञा से तुम्हारा सब काम पूरा कर देंगे, महालक्ष्मी के इस प्रकार कहने पर राजकुमार उस स्थान पर आया, जहाँ सिद्धसमाधि रहते थे, उनके चरणों में प्रणाम करके राजकुमार चुपचाप हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।
तब ब्राह्मण ने कहाः- 'तुम्हें माता जी ने यहाँ भेजा है, अच्छा, देखो, अब मैं तुम्हारा सारा अभीष्ट कार्य सिद्ध करता हूँ,' इस प्रकार कहकर मन्त्र द्वारा ब्राह्मण ने सब देवताओं को पुकारा, राजकुमार ने देखा, उस समय सब देवता हाथ जोड़े थर-थर काँपते हुए वहाँ उपस्थित हो गये, तब उन श्रेष्ठ ब्राह्मण ने समस्त देवताओं से कहा 'देवगण! इस राजकुमार का अश्व, जो यज्ञ के लिए निश्चित हो चुका था, रात में देवराज इन्द्र ने चुराकर अन्यत्र पहुँचा दिया है, उसे शीघ्र ले आओ।'
तब देवताओं ने ब्राह्मण के कहने से यज्ञ का घोड़ा लाकर दे दिया, इसके बाद उन्होंने उन्हे जाने की आज्ञा दी, देवताओं का आकर्षण देखकर तथा खोये हुए अश्व को पाकर राजकुमार ने ब्राह्मण के चरणों में प्रणाम करके कहाः 'महर्षि! आपका यह सामर्थ्य आश्चर्यजनक है, आप ही ऐसा कार्य कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं, हे ब्रह्मन्! मेरी प्रार्थना सुनिये, मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ करके दैवयोग से मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं, अभी तक उनका शरीर तपाये हुए तेल में सुखाकर मैंने रख छोड़ा है, आप उन्हें पुनः जीवित कर दीजिए।'
ब्राह्मण ने मुस्कराकर कहाः- 'चलो, वहाँ यज्ञ मण्डप में तुम्हारे पिता मौजूद हैं,' तब सिद्धसमाधि ने राजकुमार के साथ वहाँ जाकर जल अभिमन्त्रित किया और उसे शव के मस्तक पर रखा, उसके रखते ही राजा सचेत होकर उठ बैठे फिर उन्होंने ब्राह्मण को देखकर पूछाः 'धर्मस्वरूप! आप कौन हैं?' तब राजकुमार ने महाराज से पहले का सारा हाल कह सुनाया, राजा ने अपने को पुनः जीवनदान देने वाले ब्राह्मण को नमस्कार किया।
राजा ने पूछाः- '' हे ब्राह्मण! किस पुण्य से आपको यह अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई है?"
ब्राह्मण ने मधुर वाणी में कहाः- 'हे राजन! मैं प्रतिदिन आलस्यरहित होकर गीता के बारहवें अध्याय का जप करता हूँ, उसी से मुझे यह शक्ति मिली है, जिससे तुम्हें जीवन प्राप्त हुआ है,' यह सुनकर ब्राह्मणों सहित राजा ने उन महर्षि से उन से गीता के बारहवें अध्याय का अध्ययन किया, उसके माहात्म्य से उन सबकी सद्‍गति हो गयी।
श्री महादेवजी ने कहा:- हे प्रिय! इसी प्रकार अनेक जीव भी गीता के बाहरवें अध्याय का पाठ करके परम मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं।

Saturday, 28 November 2015

गीता के ग्यारह अध्याय का माहात्म्य

श्री महादेवजी कहते हैं:- प्रिये! गीता के वर्णन से सम्बन्ध रखने वाली कथा और विश्वरूप अध्याय के पावन माहात्म्य को सुनो, विशाल नेत्रों वाली पार्वती! इस अध्याय के माहात्म्य का पूरा-पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता है, इसके सम्बन्ध में कई कथाएँ हैं, उनमें से एक कथा कहता हूँ।
प्रणीता नदी के तट पर मेघंकर नाम से विख्यात एक बहुत बड़ा नगर है, उसकी चारों दीवार और द्वार बहुत ऊँचे हैं, वहाँ बड़े-बड़े विश्राम गृह हैं, जहाँ के सोने के खम्भे शोभा बढा़ रहे हैं, उस नगर में श्रीमान, सुखी, शान्त, सदाचारी तथा जितेन्द्रिय मनुष्यों का निवास है, वहाँ हाथ में शारंग नामक धनुष धारण करने वाले जगदीश्वर भगवान विष्णु विराजमान हैं, वे परब्रह्म के साकार स्वरूप हैं, उनका गौरव-पूर्ण श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मी के नेत्र-कमलों द्वारा पूजित होता है, भगवान की वह झाँकी वामन-अवतार की है, मेघ के समान उनका श्यामवर्ण तथा कोमल आकृति है, वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न शोभा पाता है, वे कमल और वनमाला से सुशोभित हैं, अनेक प्रकार के आभूषणों से सुशोभित हो भगवान वामन रत्न से युक्त समुद्र के सदृश जान पड़ते हैं, पीताम्बर से उनके श्याम विग्रह की कान्ति ऐसी प्रतीत होती है, मानो चमकती हुई बिजली से घिरा हुआ मेघ शोभा पा रहा हो, उन भगवान वामन का दर्शन करके जीव जन्म और संसार के बन्धन से मुक्त हो जाता है, उस नगर में मेखला नामक महान तीर्थ है, जिसमें स्नान करके मनुष्य शाश्वत वैकुण्ठधाम को प्राप्त होता है, वहाँ जगत के स्वामी करुणा के सागर भगवान नृसिंह का दर्शन करने से मनुष्य के सात जन्मों के किये हुए घोर पाप से छुटकारा पा जाता है, जो मनुष्य मेखला में गणेशजी का दर्शन करता है, वह सदा दुस्तर विघ्नों से पार हो जाता है।
उसी मेघंकर नगर में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, जो ब्रह्मचर्य परायण, ममता और अहंकार से रहित, वेद शास्त्रों में प्रवीण, जितेन्द्रिय तथा भगवान वासुदेव के शरणागत थे, उनका नाम सुनन्द था, प्रिये! वे शारंग धनुष धारण करने वाले भगवान के पास गीता के ग्यारहवें अध्याय-विश्वरूप दर्शन का पाठ किया करते थे, उस अध्याय के प्रभाव से उन्हें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो गयी थी, परमानन्द-संदोह से पूर्ण उत्तम ज्ञानमयी समाधी के द्वारा इन्द्रियों के अन्तर्मुख हो जाने के कारण वे निश्चल स्थिति को प्राप्त हो गये थे और सदा जीवन मुक्त योगी की स्थिति में रहते थे, एक समय जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित थे।
महायोगी सुनन्द ने गोदावरी तीर्थ की यात्रा आरम्भ की, वे क्रमशः विरज तीर्थ, तारा तीर्थ, कपिला संगम, अष्ट तीर्थ, कपिला द्वार, नृसिंह वन, अम्बिका पुरी तथा करस्थानपुर आदि क्षेत्रों में स्नान और दर्शन करते हुए विवाद मण्डप नामक नगर में आये, वहाँ उन्होंने प्रत्येक घर में जाकर अपने ठहरने के लिए स्थान माँगा, परन्तु कहीं भी उन्हें स्थान नहीं मिला, अन्त में गाँव के मुखिया ने उन्हें बहुत बड़ी धर्मशाला दिखा दी, ब्राह्मण ने साथियों सहित उसके भीतर जाकर रात में निवास किया, सबेरा होने पर उन्होंने अपने को तो धर्मशाला के बाहर पाया, किंतु उनके और साथी नहीं दिखाई दिये, वे उन्हें खोजने के लिए चले, इतने में ही मुखिया से उनकी भेंट हो गयी।
मुखिया ने कहाः- "मुनिश्रेष्ठ! तुम सब प्रकार से दीर्घायु जान पड़ते हो, सौभाग्यशाली तथा पुण्यवान पुरुषों में तुम सबसे पवित्र हो, तुम्हारे साथी कहाँ गये? कैसे इस भवन से बाहर हुए? इसका पता लगाओ, मैं तुम्हारे सामने इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे जैसा तपस्वी मुझे दूसरा कोई दिखाई नहीं देता, विप्रवर! तुम्हें किस महामन्त्र का ज्ञान है? किस विद्या का आश्रय लेते हो तथा किस देवता की दया से तुम्हे अलौकिक शक्ति प्राप्त हो गयी हैं? ब्राह्मण देव! कृपा करके इस गाँव में रहो, मैं तुम्हारी सब प्रकार से सेवा-सुश्रूषा करूँगा, यह कहकर मुखिया ने मुनीश्वर सुनन्द को अपने गाँव में ठहरा लिया, वह दिन रात बड़ी भक्ति से उसकी सेवा करने लगा, जब सात-आठ दिन बीत गये, तब एक दिन प्रातःकाल आकर वह बहुत दुःखी हो महात्मा के सामने रोने लगा और बोला "हाय! आज रात में राक्षस ने मेरे बेटे को खा लिया है, मेरा पुत्र बड़ा ही गुणवान और भक्तिमान था।
सुनन्द ने पूछाः- "कहाँ है वह राक्षस? और किस प्रकार उसने तुम्हारे पुत्र का भक्षण किया है?
मुखिया बोलाः- ब्राह्मण देव! इस नगर में एक बड़ा भयंकर नर-भक्षी राक्षस रहता है, वह प्रतिदिन आकर इस नगर में मनुष्यों को खा लिया करता था, तब एक दिन समस्त नगर वासियों ने मिलकर उससे प्रार्थना की "राक्षस! तुम हम सब लोगों की रक्षा करो, हम तुम्हारे लिए भोजन की व्यवस्था किये देते हैं, यहाँ बाहर के जो पथिक रात में आकर नींद लेंगे, उनको खा जाना" इस प्रकार नागरिक मनुष्यों ने गाँव के मुझ मुखिया द्वारा इस धर्मशाला में भेजे हुए पथिकों को ही राक्षस का आहार निश्चित किया, अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए उन्हें ऐसा करना पड़ा, आप भी अन्य राहगीरों के साथ इस घर में आकर सोये थे, किंतु राक्षस ने उन सब को तो खा लिया, केवल तुम्हें छोड़ दिया है।
हे ब्राहमणश्रेष्ठ! तुममें ऐसा क्या प्रभाव है, इस बात को तुम्हीं जानते हो, इस समय मेरे पुत्र का एक मित्र आया था, किंतु मैं उसे पहचान न सका, वह मेरे पुत्र को बहुत ही प्रिय था, किंतु अन्य राहगीरों के साथ उसे भी मैंने उसी धर्मशाला में भेज दिया, मेरे पुत्र ने जब सुना कि मेरा मित्र भी उसमें प्रवेश कर गया है, तब वह उसे वहाँ से ले आने के लिए गया, परन्तु राक्षस ने उसे भी खा लिया, आज सवेरे मैंने बहुत दुःखी होकर उस पिशाच से पूछा "ओ दुष्टात्मन्! तूने रात में मेरे पुत्र को भी खा लिया, तेरे पेट में पड़ा हुआ मेरा पुत्र जिससे जीवित हो सके, ऐसा कोई उपाय यदि हो तो बता।"
राक्षस ने कहाः- मुखिया! धर्मशाला के भीतर घुसे हुए तुम्हारे पुत्र को न जानने के कारण मैंने भक्षण किया है, अन्य पथिकों के साथ तुम्हारा पुत्र भी अनजाने में ही मेरा ग्रास बन गया है, वह मेरे उदर में जिस प्रकार जीवित और रक्षित रह सकता है, वह उपाय स्वयं विधाता ने ही कर दिया है, जो ब्राह्मण सदा गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ करता हो, उसके प्रभाव से मेरी मुक्ति होगी और मरे हुओं को पुनः जीवन प्राप्त होगा, यहाँ कोई ब्राह्मण रहते हैं, जिनको मैंने एक दिन धर्मशाला से बाहर कर दिया था, वे निरन्तर गीता के ग्यारहवें अध्याय का जप किया करते हैं, इस अध्याय के मंत्र से सात बार अभिमन्त्रित करके यदि वे मेरे ऊपर जल का छींटा दें तो निःसंदेह मेरा शाप से उद्धार हो जाएगा, इस प्रकार उस राक्षस का संदेश पाकर मैं तुम्हारे निकट आया हूँ।
ग्रामपाल बोलाः- हे ब्राह्मण! पहले इस गाँव में कोई किसान ब्राह्मण रहता था, एक दिन वह अगहनी के खेत की क्यारियों की रक्षा करने में लगा था, वहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बहुत बड़ा गिद्ध किसी राही को मार कर खा रहा था, उसी समय एक तपस्वी कहीं से आ निकले, जो उस राही को लिए दूर से ही दया दिखाते आ रहे थे, गिद्ध उस राही को खाकर आकाश में उड़ गया, तब उस तपस्वी ने उस किसान से कहा "ओ दुष्ट हलवाहे! तुझे धिक्कार है! तू बड़ा ही कठोर और निर्दयी है, दूसरे की रक्षा से मुँह मोड़कर केवल पेट पालने के धंधे में लगा है, तेरा जीवन नष्टप्राय है, अरे! शक्ति होते हुए भी जो चोर, दाढ़वाले जीव, सर्प, शत्रु, अग्नि, विष, जल, गीध, राक्षस, भूत तथा बेताल आदि के द्वारा घायल हुए मनुष्यों की उपेक्षा करता है, वह उनके वध का फल पाता है।
जो शक्तिशाली होकर भी चोर आदि के चंगुल में फँसे हुए ब्राह्मण को छुड़ाने की चेष्टा नहीं करता, वह घोर नरक में पड़ता है और पुनः भेड़िये की योनि में जन्म लेता है, जो वन में मारे जाते हुए तथा गिद्ध और व्याघ्र की दृष्टि में पड़े हुए जीव की रक्षा के लिए 'छोड़ो....छोड़ो...' की पुकार करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है, जो मनुष्य गौओं की रक्षा के लिए व्याघ्र, भील तथा दुष्ट राजाओं के हाथ से मारे जाते हैं, वे भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होते हैं जो योगियों के लिए भी दुर्लभ है, सहस्र अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ मिलकर शरणागत-रक्षा की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते, दीन तथा भयभीत जीव की उपेक्षा करने से पुण्यवान पुरुष भी समय आने पर कुम्भीपाक नामक नरक में पकाया जाता है, तूने दुष्ट गिद्ध के द्वारा खाये जाते हुए राही को देखकर उसे बचाने में समर्थ होते हुए भी जो उसकी रक्षा नहीं की, इससे तू निर्दयी जान पड़ता है, अतः तू राक्षस हो जा।
हलवाहा बोलाः- महात्मन्! मैं यहाँ उपस्थित अवश्य था, किंतु मेरे नेत्र बहुत देर से खेत की रक्षा में लगे थे, अतः पास होने पर भी गिद्ध के द्वारा मारे जाते हुए इस मनुष्य को मैं नहीं देख सका, अतः मुझ दीन पर आपको अनुग्रह करना चाहिए।
तपस्वी ब्राह्मण ने कहाः- जो प्रति दिन गीता के ग्यारहवें अध्याय का जप करता है, उस मनुष्य के द्वारा अभिमन्त्रित जल जब तुम्हारे मस्तक पर पड़ेगा, उस समय तुम्हे शाप से छुटकारा मिल जायेगा, यह कहकर तपस्वी ब्राह्मण चले गये और वह हलवाहा राक्षस हो गया, अतः द्विजश्रेष्ठ! तुम चलो और ग्यारहवें अध्याय से तीर्थ के जल को अभिमन्त्रित करो फिल अपने ही हाथ से उस राक्षस के मस्तक पर उसे छिड़क दो।
मुखिया की यह सारी प्रार्थना सुनकर ब्राह्मण के हृदय में करुणा भर आयी, वे 'बहुत अच्छा' कहकर उसके साथ राक्षस के निकट गये, वे ब्राह्मण योगी थे, उन्होंने विश्वरूप-दर्शन नामक ग्यारहवें अध्याय से जल अभिमन्त्रित करके उस राक्षस के मस्तक पर डाला, गीता के ग्यारहवें अध्याय के प्रभाव से वह शाप से मुक्त हो गया, उसने राक्षस-देह का परित्याग करके चतुर्भुजरूप धारण कर लिया तथा उसने जिन सहस्रों प्राणियों का भक्षण किया था, वे भी शंख, चक्र और गदा धारण किये हुए चतुर्भुजरूप हो गये, तत्पश्चात् वे सभी विमान पर सवार हुए।
मुखिया ने राक्षस से कहाः- "निशाचर! मेरा पुत्र कौन है? उसे दिखाओ," उसके यों कहने पर दिव्य बुद्धिवाले राक्षस ने कहा 'ये जो तमाल के समान श्याम, चार भुजाधारी, माणिक के मुकुट से सुशोभित तथा दिव्य मणियों के बने हुए कुण्डलों से अलंकृत हैं, हार पहनने के कारण जिनके कन्धे मनोहर प्रतीत होते हैं, जो सोने के भुजबंदों से विभूषित, कमल के समान नेत्रवाले, हाथ में कमल लिए हुए हैं और दिव्य विमान पर बैठकर देवत्व के प्राप्त हो चुके हैं, इन्हीं को अपना पुत्र समझो,' यह सुनकर मुखिया ने उसी रूप में अपने पुत्र को देखा और उसे अपने घर ले जाना चाहा, यह देख उसका पुत्र हँस पड़ा और इस प्रकार कहने लगा।
पुत्र बोलाः- मुखिया! कई बार तुम भी मेरे पुत्र बन चुके हो, पहले मैं तुम्हारा पुत्र था, किंतु अब देवता हो गया हूँ, इन ब्राह्मण देवता के प्रसाद से वैकुण्ठ-धाम को जाऊँगा, देखो, यह निशाचर भी चतुर्भुज रूप को प्राप्त हो गया, ग्यारहवें अध्याय के माहात्म्य से यह सब लोगों के साथ श्रीविष्णु धाम को जा रहा है, अतः तुम भी इन ब्राह्मणदेव से गीता के ग्यारहवें अध्याय का अध्ययन करो और निरन्तर उसका जप करते रहो, इसमें सन्देह नहीं कि तुम्हारी भी ऐसी ही उत्तम गति होगी, तात! मनुष्यों के लिए साधु पुरुषों का संग सर्वथा दुर्लभ है, वह भी इस समय तुम्हें प्राप्त है, अतः अपना अभीष्ट सिद्ध करो, धन, भोग, दान, यज्ञ, तपस्या और पूर्वकर्मों से क्या लेना है? विश्वरूप अध्याय के पाठ से ही परम कल्याण की प्राप्त हो जाती है।
सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण नामक ब्रह्म के मुख से कुरुक्षेत्र में अपने मित्र अर्जुन के प्रति जो अमृतमय उपदेश निकला था, वही श्रीविष्णु का परम तात्त्विक रूप है, तुम उसी का चिन्तन करो, वह मोक्ष के लिए प्रसिद्ध रसायन, संसार-भय से डरे हुए मनुष्यों की आधि-व्याधि का विनाशक तथा अनेक जन्म के दुःखों का नाश करने वाला है, मैं उसके सिवा दूसरे किसी साधन को ऐसा नहीं देखता, अतः उसी का अभ्यास करो।
श्री महादेव कहते हैं:– यह कहकर वह सबके साथ श्रीविष्णु के परम धाम को चला गया, तब मुखिया ने ब्राह्मण के मुख से उस अध्याय को पढ़ा फिर वे दोनों ही उसके माहात्म्य से विष्णुधाम को चले गये, पार्वती! इस प्रकार तुम्हें ग्यारहवें अध्याय की माहात्म्य की कथा सुनायी है, इसके श्रवण मात्र से महान पातकों का नाश हो जाता है।

गीता के दस अध्याय का माहात्म्य

भगवान शिव कहते हैं:- देवी! अब तुम दशवें अध्याय के माहात्म्य की परम पावन कथा सुनो, जो स्वर्गरूपी दुर्ग में जाने के लिए सुन्दर सोपान और प्रभाव की चरम सीमा है।
काशीपुरी में धीरबुद्धि नाम से विख्यात एक ब्राह्मण था, जो मेरी प्रिय नन्दी के समान भक्ति रखता था, वह पावन कीर्ति के अर्जन में तत्पर रहने वाला, शान्त-चित्त और हिंसा, कठोरता और दुःसाहस से दूर रहने वाला था, जितेन्द्रिय होने के कारण वह निवृत्ति-मार्ग में स्थित रहता था, उसने वेद-रूपी समुद्र का पार पा लिया था, वह सम्पूर्ण शास्त्रों के तात्पर्य का ज्ञाता था, उसका चित्त सदा मेरे ध्यान में संलग्न रहता था, वह मन को अन्तरात्मा में लगाकर सदा आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया करता था, अतः जब वह चलने लगता, तब मैं प्रेम-वश उसके पीछे दौड़-दौड़कर उसे हाथ का सहारा देता रहता था। यह देख मेरे पार्षद भृंगिरिटि ने पूछाः- भगवन! इस प्रकार भला, किसने आपका दर्शन किया होगा? इस महात्मा ने कौन-सा तप, होम अथवा जप किया है कि स्वयं आप ही पग-पग पर इसे हाथ का सहारा देते रहते हैं?
भृंगिरिटि का यह प्रश्न सुनकर मैंने कहा एक समय की बात है – कैलास पर्वत के पार्श्वभागम में पुन्नाग वन के भीतर चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से धुली हुई भूमि में एक वेदी का आश्रय लेकर मैं बैठा हुआ था, मेरे बैठने के क्षण भर बाद ही सहसा बड़े जोर की आँधी उठी वहाँ के वृक्षों की शाखाएँ नीचे-ऊपर होकर आपस में टकराने लगीं, कितनी ही टहनियाँ टूट-टूटकर बिखर गयीं, पर्वत की अविचल छाया भी हिलने लगी, इसके बाद वहाँ महान भयंकर शब्द हुआ, जिससे पर्वत की कन्दराएँ प्रतिध्वनित हो उठीं, तदनन्तर आकाश से कोई विशाल पक्षी उतरा, जिसकी कान्ति काले मेघ के समान थी, वह कज्जल की राशि, अन्धकार के समूह अथवा पंख कटे हुए काले पर्वत-सा जान पड़ता था, पैरों से पृथ्वी का सहारा लेकर उस पक्षी ने मुझे प्रणाम किया और एक सुन्दर नवीन कमल मेरे चरणों में रखकर स्पष्ट वाणी में स्तुति करनी आरम्भ की।
पक्षी बोलाः- देव! आपकी जय हो, आप चिदानन्दमयी सुधा के सागर तथा जगत के पालक हैं, सदा सदभावना से युक्त और अनासक्ति की लहरों से उल्लसित हैं, आपके वैभव का कहीं अन्त नहीं है, आपकी जय हो, अद्वैतवासना से परिपूर्ण बुद्धि के द्वारा आप त्रिविध मलों से रहित हैं, आप जितेन्द्रिय भक्तों को अधीन अविद्यामय उपाधि से रहित, नित्य-मुक्त, निराकार, निरामय, असीम, अहंकार-शून्य, आवरण-रहित और निर्गुण हैं, आपके भयंकर ललाट-रूपी महासर्प की विष ज्वाला से आपने कामदेव को भस्म किया, आपकी जय हो।
आप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से दूर होते हुए भी प्रामाण स्वरूप हैं, आपको बार-बार नमस्कार है, चैतन्य के स्वामी तथा त्रिभुवनरूपधारी आपको प्रणाम है, मैं श्रेष्ठ योगियों द्वारा चुम्बित आपके उन चरण-कमलों की वन्दना करता हूँ, जो अपार भव-पाप के समुद्र से पार उतरने में अदभुत शक्तिशाली हैं, महादेव! साक्षात बृहस्पति भी आपकी स्तुति करने की धृष्टता नहीं कर सकते, सहस्र मुखों वाले नागराज शेष में भी इतना चातुर्य नहीं है कि वे आपके गुणों का वर्णन कर सकें, फिर मेरे जैसे छोटी बुद्धिवाले पक्षी की तो बिसात ही क्या है?
उस पक्षी के द्वारा किये हुए इस स्तोत्र को सुनकर मैंने उससे पूछाः- "विहंगम ! तुम कौन हो और कहाँ से आये हो? तुम्हारी आकृति तो हंस जैसी है, मगर रंग कौए का मिला है, तुम जिस प्रयोजन को लेकर यहाँ आये हो, उसे बताओ।"
पक्षी बोलाः- देवेश! मुझे ब्रह्मा जी का हंस जानिये, धूर्जटे! जिस कर्म से मेरे शरीर में इस समय कालिमा आ गयी है, उसे सुनिये, प्रभो! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं, अतः आप से कोई भी बात छिपी नहीं है तथापि यदि आप पूछते हैं तो बतलाता हूँ, सौराष्ट्र (सूरत) नगर के पास एक सुन्दर सरोवर है, जिसमें कमल लहलहाते रहते हैं, उसी में से बाल-चन्द्रमा के टुकड़े जैसे श्वेत मृणालों के ग्रास लेकर मैं तीव्र गति से आकाश में उड़ रहा था, उड़ते-उड़ते सहसा वहाँ से पृथ्वी पर गिर पड़ा।
जब होश में आया और अपने गिरने का कोई कारण न देख सका तो मन ही मन सोचने लगा 'अहो! यह मुझ पर क्या आ पड़ा? आज मेरा पतन कैसे हो गया?' पके हुए कपूर के समान मेरे श्वेत शरीर में यह कालिमा कैसे आ गयी? इस प्रकार विस्मित होकर मैं अभी विचार ही कर रहा था कि उस पोखरे के कमलों में से मुझे ऐसी वाणी सुनाई दीः 'हंस! उठो, मैं तुम्हारे गिरने और काले होने का कारण बताती हूँ,' तब मैं उठकर सरोवर के बीच गया और वहाँ पाँच कमलों से युक्त एक सुन्दर कमलिनी को देखा, उसको प्रणाम करके मैंने प्रदक्षिणा की और अपने पतन का कारण पूछा।
कमलिनी बोलीः- कलहंस! तुम आकाश मार्ग से मुझे लाँघकर गये हो, उसी पातक के परिणाम-वश तुम्हें पृथ्वी पर गिरना पड़ा है तथा उसी के कारण तुम्हारे शरीर में कालिमा दिखाई देती है, तुम्हें गिरा देख मेरे हृदय में दया भर आयी और जब मैं इस मध्यम कमल के द्वारा बोलने लगी हूँ, उस समय मेरे मुख से निकली हुई सुगन्ध को सूँघकर साठ हजार भँवरे स्वर्ग लोक को प्राप्त हो गये हैं, पक्षिराज! जिस कारण मुझमें इतना प्रभाव आया है, उसे बतलाती हूँ, सुनो।
इस जन्म से पहले तीसरे जन्म में मैं इस पृथ्वी पर एक ब्राह्मण की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थी, उस समय मेरा नाम सरोजवदना था, मैं गुरुजनों की सेवा करती हुई सदा एकमात्र पतिव्रत के पालन में तत्पर रहती थी, एक दिन की बात है, मैं एक मैना को पढ़ा रही थी, इससे पतिसेवा में कुछ विलम्ब हो गया, इससे पतिदेवता कुपित हो गये और उन्होंने शाप दिया 'पापिनी! तू मैना हो जा,' मरने के बाद यद्यपि मैं मैना ही हुई, तथापि पातिव्रत्य के प्रसाद से मुनियों के ही घर में मुझे आश्रय मिला, किसी मुनि कन्या ने मेरा पालन-पोषण किया, मैं जिनके घर में थी, वे ब्राह्मण प्रतिदिन विभूति योग के नाम से प्रसिद्ध गीता के दसवें अध्याय का पाठ करते थे और मैं उस पापहारी अध्याय को सुना करती थी, विहंगम! काल आने पर मैं मैना का शरीर छोड़ कर दशम अध्याय के माहात्म्य से स्वर्ग लोक में अप्सरा हुई, मेरा नाम पद्मावती हुआ और मैं पद्मा की प्यारी सखी हो गयी।
एक दिन मैं विमान से आकाश में विचर रही थी, उस समय सुन्दर कमलों से सुशोभित इस रमणीय सरोवर पर मेरी दृष्टि पड़ी और इसमें उतर कर ज्यों हीं मैंने जलक्रीड़ा आरम्भ की, त्यों ही दुर्वासा मुनि आ धमके, उन्होंने वस्त्रहीन अवस्था में मुझे देख लिया, उनके भय से मैंने स्वयं ही कमलिनी का रूप धारण कर लिया, मेरे दोनों पैर दो कमल हुए, दोनों हाथ भी दो कमल हो गये और शेष अंगों के साथ मेरा मुख भी कमल का हो गया, इस प्रकार मैं पाँच कमलों से युक्त हुई, मुनिवर दुर्वासा ने मुझे देखा उनके नेत्र क्रोधाग्नि से जल रहे थे।
मुनिवर दुर्वासा बोलेः- 'पापिनी ! तू इसी रूप में सौ वर्षों तक पड़ी रह।' यह शाप देकर वे क्षणभर में अन्तर्धान हो गये कमलिनी होने पर भी विभूति-योगाध्याय के माहात्म्य से मेरी वाणी लुप्त नहीं हुई है, मुझे लाँघने मात्र के अपराध से तुम पृथ्वी पर गिरे हो, पक्षीराज! यहाँ खड़े हुए तुम्हारे सामने ही आज मेरे शाप की निवृत्ति हो रही है, क्योंकि आज सौ वर्ष पूरे हो गये, मेरे द्वारा गाये जाते हुए, उस उत्तम अध्याय को तुम भी सुन लो, उसके श्रवणमात्र से तुम भी आज मुक्त हो जाओगे, यह कहकर पद्मिनी ने स्पष्ट तथा सुन्दर वाणी में दसवें अध्याय का पाठ किया और वह मुक्त हो गयी, उसे सुनने के बाद उसी के दिये हुए इस कमल को लाकर मैंने आपको अर्पण किया है।
इतनी कथा सुनाकर उस पक्षी ने अपना शरीर त्याग दिया, यह एक अदभुत-सी घटना हुई, वही पक्षी अब दसवें अध्याय के प्रभाव से ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ है, जन्म से ही अभ्यास होने के कारण शैशवावस्था से ही इसके मुख से सदा गीता के दसवें अध्याय का उच्चारण हुआ करता है, दसवें अध्याय के अर्थ-चिन्तन का यह परिणाम हुआ है कि यह सब भूतों में स्थित शंख-चक्रधारी भगवान विष्णु का सदा ही दर्शन करता रहता है, इसकी स्नेहपूर्ण दृष्टि जब कभी किसी देहधारी क शरीर पर पड़ जाती है, तब वह चाहे शराबी और ब्रह्महत्यारा ही क्यों न हो, मुक्त हो जाता है तथा पूर्वजन्म में अभ्यास किये हुए दसवें अध्याय के माहात्म्य से इसको दुर्लभ तत्त्वज्ञान प्राप्त हुआ तथा इसने जीवन्मुक्ति भी पा ली है, अतः जब यह रास्ता चलने लगता है तो मैं इसे हाथ का सहारा दिये रहता हूँ, भृंगिरिटी! यह सब दसवें अध्याय की ही महामहिमा है।
भगवान शिव कहते हैं:- पार्वती ! इस प्रकार मैंने भृंगिरिटि के सामने जो पापनाशक कथा कही थी, वही तुमसे भी कही है, नर हो या नारी, अथवा कोई भी क्यों न हो, इस दसवें अध्याय के श्रवण मात्र से उसे सब आश्रमों के पालन का फल प्राप्त होता है।

गीता के नौ अध्याय का माहात्म्य

भगवान शिव कहते हैं:- पार्वती अब मैं आदरपूर्वक नौवें अध्याय के माहात्म्य का वर्णन करुँगा, तुम स्थिर होकर सुनो।
नर्मदा के तट पर माहिष्मती नाम की एक नगरी है, वहाँ माधव नाम के एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेद-वेदांगों के तत्वज्ञ और समय-समय पर आने वाले अतिथियों के प्रेमी थे, उन्होंने विद्या के द्वारा बहुत धन कमाकर एक महान यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया, उस यज्ञ में बलि देने के लिए एक बकरा मंगाया गया, जब उसके शरीर की पूजा हो गयी, तब सबको आश्चर्य में डालते हुए उस बकरे ने हँसकर उच्च स्वर से कहाः "ब्राह्मण! इन बहुत से यज्ञों द्वारा क्या लाभ है? इनका फल तो नष्ट हो जाने वाला तथा ये जन्म, जरा और मृत्यु के भी कारण हैं, यह सब करने पर भी मेरी जो वर्तमान दशा है इसे देख लो," बकरे के इस अत्यन्त कौतूहल जनक वचन को सुनकर यज्ञ मण्डप में रहने वाले सभी लोग बहुत ही विस्मित हुए, तब वे यजमान ब्राह्मण हाथ जोड़ अपलक नेत्रों से देखते हुए बकरे को प्रणाम करके आदर के साथ पूछने लगे।
ब्राह्मण बोलेः- आप किस जाति के थे? आपका स्वभाव और आचरण कैसा था? तथा जिस कर्म से आपको बकरे की योनि प्राप्त हुई? यह सब मुझे बताइये।
बकरा बोलाः- ब्राह्मण ! मैं पूर्व जन्म में ब्राह्मणों के अत्यन्त निर्मल कुल में उत्पन्न हुआ था, समस्त यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला और वेद-विद्या में प्रवीण था, एक दिन मेरी स्त्री ने भगवती दुर्गा की भक्ति से विनम्र होकर अपने बालक के रोग की शान्ति के लिए बलि देने के निमित्त मुझसे एक बकरा माँगा, तत्पश्चात् जब चण्डिका के मन्दिर में वह बकरा मारा जाने लगा, उस समय उसकी माता ने मुझे शाप दियाः "ओ ब्राह्मणों में नीच, पापी! तू मेरे बच्चे का वध करना चाहता है, इसलिए तू भी बकरे की योनि में जन्म लेगा।"
द्विजश्रेष्ठ! तब कालवश मृत्यु को प्राप्त होकर मैं बकरा हुआ, यद्यपि मैं पशु योनि में पड़ा हूँ, तो भी मुझे अपने पूर्व-जन्मों का स्मरण बना हुआ है, ब्राह्मण! यदि आपको सुनने की उत्कण्ठा हो तो मैं एक और भी आश्चर्य की बात बताता हूँ, कुरुक्षेत्र नामक एक नगर है, जो मोक्ष प्रदान करने वाला है, वहाँ चन्द्र शर्मा नामक एक सूर्य-वंशी राजा राज्य करते थे, एक समय जब सूर्य-ग्रहण लगा था।
राजा ने बड़ी श्रद्धा के साथ कालपुरुष का दान करने की तैयारी की, उन्होंने वेद-वेदांगो के पारगामी एक विद्वान ब्राह्मण को बुलवाया और पुरोहित के साथ वे तीर्थ के पावन जल से स्नान करने को चले और दो वस्त्र धारण किये, फिर पवित्र और प्रसन्नचित्त होकर उन्होंने श्वेत चन्दन लगाया और बगल में खड़े हुए पुरोहित का हाथ पकड़कर मनुष्यों से घिरे हुए अपने स्थान पर लौट आये। आने पर राजा ने यथोचित्त विधि से भक्ति-पूर्वक ब्राह्मण को काल-पुरुष का दान किया।
तब काल-पुरुष का हृदय चीरकर उसमें से एक पापात्मा चाण्डाल प्रकट हुआ फिर थोड़ी देर के बाद निन्दा भी चाण्डाली का रूप धारण करके काल-पुरुष के शरीर से निकली और ब्राह्मण के पास आ गयी, इस प्रकार चाण्डालों की वह जोड़ी आँखें लाल किये निकली और ब्राह्मण के शरीर में हठात प्रवेश करने लगी, ब्राह्मण मन ही मन गीता के नौवें अध्याय का जप करते थे और राजा चुपचाप यह सब कौतुक देखने लगे, ब्राह्मण के अन्तःकरण में भगवान गोविन्द शयन करते थे, वे उन्हीं का ध्यान करने लगे।
ब्राह्मण ने जब गीता के नौवें अध्याय का जप करते हुए अपने भगवान का ध्यान किया, उस समय गीता के अक्षरों से प्रकट हुए विष्णु-दूतों द्वारा पीड़ित होकर वे दोनों चाण्डाल भाग चले, उनका उद्योग निष्फल हो गया, इस प्रकार इस घटना को प्रत्यक्ष देखकर राजा के नेत्र आश्चर्य से चकित हो उठे, उन्होंने ब्राह्मण से पूछाः "विप्रवर! इस भयंकर आपत्ति को आपने कैसे पार किया? आप किस मन्त्र का जप तथा किस देवता का स्मरण कर रहे थे? वह पुरुष तथा स्त्री कौन थी? वे दोनों कैसे उपस्थित हुए? फिर वे शान्त कैसे हो गये? यह सब मुझे बताइये।
ब्राह्मण ने कहाः- राजन! चाण्डाल का रूप धारण करके भयंकर पाप ही प्रकट हुआ था तथा वह स्त्री निन्दा की साक्षात मूर्ति थी, मैं इन दोनों को ऐसा ही समझता हूँ, उस समय मैं गीता के नवें अध्याय के मन्त्रों की माला जपता था, उसी का माहात्म्य है कि सारा संकट दूर हो गया, महीपते! मैं नित्य ही गीता के नौवें अध्याय का जप करता हूँ, उसी के प्रभाव से ग्रह-जनित आपत्तियों के पार हो सका हूँ, यह सुनकर राजा ने उसी ब्राह्मण से गीता के नवम अध्याय का अभ्यास किया, फिर वे दोनों ही परम शान्ति (मोक्ष) को प्राप्त हो गये।
यह कथा सुनकर ब्राह्मण ने बकरे को बन्धन से मुक्त कर दिया और गीता के नौवें अध्याय के अभ्यास से परम गति को प्राप्त किया।.....

गीता के आठ अध्याय का माहात्म्य

भगवान शिव कहते हैं:- हे देवी ! अब आठवें अध्याय का माहात्म्य सुनो, उसके सुनने से तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी, लक्ष्मीजी के पूछने पर भगवान विष्णु ने उन्हें इस प्रकार आठवें अध्याय का माहात्म्य बतलाया था।
श्री भगवान बोलेः- दक्षिण में आमर्दकपुर नामक एक प्रसिद्ध नगर है, वहाँ भाव शर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था, जिसने वेश्या को पत्नी बना कर रखा था, वह मांस खाता था, मदिरा पीता, श्रेष्ठ पुरुषों का धन चुराता, परायी स्त्री से व्यभिचार करता और शिकार खेलने में दिलचस्पी रखता था, वह बड़े भयानक स्वभाव का था और और मन में बड़े-बड़े हौंसले रखता था, एक दिन मदिरा पीने वालों का समाज जुटा था, उसमें भाव शर्मा ने भर पेट ताड़ी पी, खूब गले तक उसे चढ़ाया, अतः अजीर्ण से अत्यन्त पीड़ित होकर वह पापात्मा काल-वश मर गया और बहुत बड़ा ताड़ का वृक्ष हुआ।
उसकी घनी और ठंडी छाया का आश्रय लेकर ब्रह्म-राक्षस भाव को प्राप्त हुए कोई पति-पत्नी वहाँ रहा करते थे, उनके पूर्व जन्म की घटना इस प्रकार है, एक कुशीबल नामक ब्राह्मण था, जो वेद-वेदांग के तत्त्वों का ज्ञाता, सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थ का विशेषज्ञ और सदाचारी था, उसकी स्त्री का नाम कुमति था, वह बड़े खोटे विचार की थी, वह ब्राह्मण विद्वान होने पर भी अत्यन्त लोभ-वश अपनी स्त्री के साथ प्रतिदिन भैंस, काल-पुरुष और घोड़े आदि दानों को ग्रहण किया करता था, परन्तु दूसरे ब्राह्मणों को दान में मिली हुई कौड़ी भी नहीं देता था, वे ही दोनों पति-पत्नी काल-वश मृत्यु को प्राप्त होकर ब्रह्म-राक्षस हुए, वे भूख और प्यास से पीड़ित हो इस पृथ्वी पर घूमते हुए उसी ताड वृक्ष के पास आये और उसके मूल भाग में विश्राम करने लगे।
पत्नी ने पति से पूछाः- 'नाथ! हम लोगों का यह महान दुःख कैसे दूर होगा? ब्रह्म-राक्षस-योनि से किस प्रकार हम दोनों की मुक्ति होगी?
ब्राह्मण ने कहाः- "ब्रह्मविद्या के उपदेश, आध्यात्म तत्व के विचार और कर्म विधि के ज्ञान बिना किस प्रकार संकट से छुटकारा मिल सकता है?
पत्नी ने पूछाः- "किं तद् ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम" (पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है और कर्म कौन सा है?) उसकी पत्नी इतना कहते ही जो आश्चर्य की घटना घटित हुई, उसको सुनो, उपर्युक्त वाक्य गीता के आठवें अध्याय का आधा श्लोक था, उसके श्रवण से वह वृक्ष उस समय ताड के रूप को त्यागकर भाव शर्मा नामक ब्राह्मण हो गया, तत्काल ज्ञान होने से विशुद्ध-चित्त होकर वह पाप के चोले से मुक्त हो गया तथा उस आधे श्लोक के ही माहात्म्य से वे पति-पत्नी भी मुक्त हो गये, उनके मुख से दैवात् ही आठवें अध्याय का आधा श्लोक निकल पड़ा था।
तदनन्तर आकाश से एक दिव्य विमान आया और वे दोनों पति-पत्नी उस विमान पर आरूढ़ होकर स्वर्गलोक को चले गये, वहाँ का यह सारा वृत्तान्त अत्यन्त आश्चर्यजनक था, उसके बाद उस बुद्धिमान ब्राह्मण भाव शर्मा ने आदर-पूर्वक उस आधे श्लोक को लिखा और भगवान जनार्दन की आराधना करने की इच्छा से वह मुक्ति दायिनी काशीपुरी में चला गया, वहाँ उस उदार बुद्धिवाले ब्राह्मण ने भारी तपस्या आरम्भ की, उसी समय क्षीरसागर की कन्या भगवती लक्ष्मी ने हाथ जोड़कर देवताओं के भी देवता जगत्पति जनार्दन से पूछाः "हे नाथ ! आप सहसा नींद त्याग कर खड़े क्यों हो गये?"
श्री भगवान बोलेः- हे देवी! काशीपुरी में भागीरथी के तट पर बुद्धिमान ब्राह्मण भाव शर्मा मेरे भक्ति-रस से परिपूर्ण होकर अत्यन्त कठोर तपस्या कर रहा है, वह अपनी इन्द्रियों के वश में करके गीता के आठवें अध्याय के आधे श्लोक का जप करता है, मैं उसकी तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ, बहुत देर से उसकी तपस्या के अनुरूप फल का विचार का रहा था, प्रिये ! इस समय वह फल देने को मैं उत्कण्ठति हूँ।
पार्वती जी ने पूछाः- भगवन! श्रीहरि सदा प्रसन्न होने पर भी जिसके लिए चिन्तित हो उठे थे, उस भगवद् भक्त भाव शर्मा ने कौन-सा फल प्राप्त किया?
श्री महादेवजी बोलेः- हे देवी! द्विजश्रेष्ठ भाव शर्मा प्रसन्न हुए भगवान विष्णु के प्रसाद को पाकर आत्यन्तिक सुख (मोक्ष) को प्राप्त हुआ तथा उसके अन्य वंशज भी, जो नरक यातना में पड़े थे, उसी के शुद्ध कर्म से भगवद्धाम को प्राप्त हुए, पार्वती! यह आठवें अध्याय का माहात्म्य थोड़े में ही तुम्हे बताया है, इस पर सदा विचार करना चाहिए।

गीता के सात अध्याय का माहात्म्य

भगवान शिव कहते हैं:- हे पार्वती ! अब मैं सातवें अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसे सुनकर कानों में अमृत भर जाता है, पाटलिपुत्र नामक एक दुर्गम नगर है जिसका द्वार बहुत ही ऊँचा है, उस नगर में शंकुकर्ण नामक एक ब्राह्मण रहता था, उसने वैश्य वृत्ति का आश्रय लेकर बहुत धन कमाया किन्तु न तो कभी पितरों का तर्पण करता था और न ही देवताओं का पूजन करता था, वह धन के लालच से धनी लोगों को ही भोज दिया करता था।
एक समय की बात है, उस ब्राह्मण ने अपना चौथा विवाह करने के लिए पुत्रों और बन्धुओं के साथ यात्रा की, मार्ग में आधी रात के समय जब वह सो रहा था, तब एक सर्प ने कहीं से आकर उसकी बाँह में काट लिया, उसके काटते ही ऐसी अवस्था हो गई कि मणि, मंत्र और औषधि आदि से भी उसके शरीर की रक्षा न हो सकी, तत्पश्चात कुछ ही क्षणों में उसके प्राण पखेरु उड़ गये और वह प्रेत बना, फिर बहुत समय के बाद वह प्रेत सर्प योनि में उत्पन्न हुआ, उसका मन धन की वासना में बँधा था, उसने पूर्व वृत्तान्त को स्मरण करके सोचा 'मैंने घर के बाहर करोड़ों की संख्या में अपना जो धन गाड़ रखा है उससे इन पुत्रों को वंचित करके स्वयं ही उसकी रक्षा करूँगा।'
साँप की योनि से पीड़ित होकर पिता ने एक दिन स्वप्न में अपने पुत्रों के समक्ष आकर अपना मनोभाव बताया, तब उसके पुत्रों ने सवेरे उठकर बड़े विस्मय के साथ एक-दूसरे से स्वप्न की बातें कही, उनमें से मंझला पुत्र कुदाल हाथ में लिए घर से निकला और जहाँ उसके पिता सर्प योनि धारण करके रहते थे, उस स्थान पर गया, यद्यपि उसे धन के स्थान का ठीक-ठीक पता नहीं था तो भी उसने चिह्नों से उसका ठीक निश्चय कर लिया और लोभ बुद्धि से वहाँ पहुँचकर बिल को खोदना आरम्भ किया, तभी एक बड़ा भयानक साँप प्रकट हुआ और बोला, 'अरे मूर्ख! तू कौन है? किसलिए आया है? यह बिल क्यों खोद रहा है? किसने तुझे भेजा है?'
पुत्र बोला:- "मैं आपका पुत्र हूँ, मेरा नाम शिव है, मैं रात्रि में देखे हुए स्वप्न से विस्मित होकर यहाँ का धन लेने के लिये आया हूँ।
पिता बोला:- "यदि तू मेरा पुत्र है तो मुझे शीघ्र ही बन्धन से मुक्त कर, मैं अपने पूर्व-जन्म के गाड़े हुए धन के ही लिए सर्प-योनि में उत्पन्न हुआ हूँ।"
पुत्र बोला:- "पिता जी! आपकी मुक्ति कैसे होगी? इसका उपाय मुझे बताईये, क्योंकि मैं इस रात में सब लोगों को छोड़कर आपके पास आया हूँ।"
पिता बोला:- "बेटा! गीता के अमृत रूपी सप्तम अध्याय को छोड़कर मुझे मुक्त करने में तीर्थ, दान, तप और यज्ञ भी समर्थ नहीं हैं, केवल गीता का सातवाँ अध्याय ही प्राणियों के जरा मृत्यु आदि दुःखों को दूर करने वाला है, पुत्र! मेरे श्राद्ध के दिन गीता के सप्तम अध्याय का पाठ करने वाले ब्राह्मण को श्रद्धापूर्वक भोजन कराओ, इससे निःसन्देह मेरी मुक्ति हो जायेगी, वत्स! अपनी शक्ति के अनुसार पूर्ण श्रद्धा के साथ वेद-विद्या में प्रवीण अन्य ब्राह्मणों को भी भोजन कराना।"
सर्प योनि में पड़े हुए पिता के ये वचन सुनकर सभी पुत्रों ने उसकी आज्ञानुसार तथा उससे भी अधिक किया, तब शंकुकर्ण ने अपने सर्प शरीर को त्यागकर दिव्य देह धारण किया और सारा धन पुत्रों के अधीन कर दिया, पिता ने करोड़ों की संख्या में जो धन उनमें बाँट दिया था, उससे वे पुत्र बहुत प्रसन्न हुए, उनकी बुद्धि धर्म में लगी हुई थी, इसलिए उन्होंने बावली, कुआँ, पोखरा, यज्ञ तथा देव मंदिर के लिए उस धन का उपयोग किया और धर्मशाला भी बनवायी, तत्पश्चात सातवें अध्याय का सदा जप करते हुए उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।
श्री महादेवजी बोलेः-हे पार्वती! यह तुम्हें सातवें अध्याय का माहात्म्य बतलाया, जिसके श्रवण मात्र से मानव सब पापों से मुक्त हो जाता है।

गीता के छह अध्याय का माहात्म्य

श्री भगवान कहते हैं: सुमुखि ! अब मैं छठे अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसे सुनने वाले मनुष्यों के लिए मुक्ति आसान हो जाती है, गोदावरी नदी के तट पर प्रतिष्ठानपुर (पैठण) नामक एक विशाल नगर है, जहाँ मैं पिप्लेश के नाम से विख्यात होकर रहता हूँ, उस नगर में जनश्रुति नामक एक राजा रहते थे, जो भूमण्डल की प्रजा को अत्यन्त प्रिये थे, उनका प्रताप मार्तण्ड-मण्डल के प्रचण्ड तेज के समान जान पड़ता था।
प्रतिदिन होने वाले उनके यज्ञ के धुएँ से नन्दनवन के कल्पवृक्ष इस प्रकार काले पड़ गये थे, मानो राजा की असाधारण दान-शीलता देखकर वे लज्जित हो गये हों, उनके यज्ञ में प्राप्त पुरोडाश के रसास्वादन में सदा आसक्त होने के कारण देवता लोग कभी प्रतिष्ठानपुर को छोड़कर बाहर नहीं जाते थे, उनके दान के समय छोड़े हुए जल की धारा, प्रताप-रूपी तेज और यज्ञ के धूमों से पुष्ट होकर मेघ ठीक समय पर वर्षा करते थे।
उस राजा के शासन काल में खेती में होने वाले छः प्रकार के उपद्रवों के लिए कहीं थोड़ा भी स्थान नहीं मिलता था और अच्छी नीतियों का सर्वत्र प्रसार होता था, वे बावडी़, कुएँ और पोखरें खुदवाने के बहाने मानो प्रतिदिन पृथ्वी के भीतर की निधियों का अवलोकन करते थे, एक समय राजा के दान, तप, यज्ञ और प्रजा-पालन से संतुष्ट होकर स्वर्ग के देवता उन्हें वर देने के लिए आये, वे कमल-नाल के समान उज्जवल हंसों का रूप धारण कर अपनी पँख हिलाते हुए आकाश मार्ग से चलने लगे,
उड़ते हुए वे सभी हंस परस्पर बातचीत भी करते जाते थे, उनमें से भद्राश्व आदि दो-तीन हंस वेग से उड़कर आगे निकल गये, तब पीछे वाले हंसों ने आगे जाने वालों को सम्बोधित करके कहाः "अरे भाई भद्राश्व ! तुम लोग वेग से चलकर आगे क्यों हो गये? यह मार्ग बड़ा दुर्गम है, इसमें हम सबको साथ मिलकर चलना चाहिए, क्या तुम्हे दिखाई नहीं देता, यह सामने ही पुण्यमूर्ति महाराज जानश्रुति का तेजपुंज अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रकाशमान हो रहा है? उस तेज से भस्म होने की आशंका है, अतः सावधान होकर चलना चाहिए।" पीछेवाले हंसों के ये वचन सुनकर आगे वाले हंस हँस पड़े और उच्च स्वर से उनकी बातों की अवहेलना करते हुए बोलेः "अरे भाई ! क्या इस राजा जानश्रुति का तेज ब्रह्मवादी महात्मा रैक्व के तेज से भी अधिक तीव्र है?"
हंसों की ये बातें सुनकर राजा जानश्रुति अपने ऊँचे महल की छत से उतर गये और सुखपूर्वक आसन पर विराजमान हो अपने सारथि को बुलाकर बोलेः "जाओ, महात्मा रैक्व को यहाँ ले आओ", राजा का यह अमृत के समान वचन सुनकर मह नामक सारथी प्रसन्नता प्रकट करता हुआ नगर से बाहर निकला, सबसे पहले उसने मुक्ति दायिनी काशी पुरी की यात्रा की, जहाँ जगत के स्वामी भगवान विश्वनाथ मनुष्यों को उपदेश दिया करते हैं, उसके बाद वह गया क्षेत्र में पहुँचा, जहाँ प्रफुल्ल नेत्रों वाले भगवान गदाधर सम्पूर्ण लोकों का उद्धार करने के लिए निवास करते हैं।
तदनन्तर नाना तीर्थों में भ्रमण करता हुआ सारथी पाप नाशिनी मथुरा पुरी में गया, यह भगवान श्री कृष्ण का आदि स्थान है, जो परम महान तथा मोक्ष प्रदान कराने वाला है, वेद और शास्त्रों में वह तीर्थ त्रिभुवन-पति भगवान गोविन्द के अवतार स्थान के नाम से प्रसिद्ध है, नाना देवता और ब्रह्मर्षि उसका सेवन करते हैं, मथुरा नगर यमुना के किनारे शोभा पाता है, उसकी आकृति अर्द्धचन्द्र के समान प्रतीत होती है, वह सब तीर्थों के निवास से परिपूर्ण है, परम आनन्द प्रदान करने के कारण सुन्दर प्रतीत होता है, गोवर्धन पर्वत होने से मथुरा मण्डल की शोभा और भी बढ़ गयी है, वह पवित्र वृक्षों और लताओं से आवृत्त है, उसमें बारह वन हैं, वह परम पुण्यमय था सबको विश्राम देने वाले श्रुतियों के सारभूत भगवान श्रीकृष्ण की आधार भूमि है।
तत्पश्चात मथुरा से पश्चिम और उत्तर दिशा की ओर बहुत दूर तक जाने पर सारथी को काश्मीर नामक नगर दिखाई दिया, जहाँ शंख के समान उज्जवल गगनचुम्बी महलों की पंक्तियाँ भगवान शंकर के अट्टहास की शोभा पाती हैं, जहाँ ब्राह्मणों के शास्त्रीय आलाप सुनकर मूक मनुष्य भी सुन्दर वाणी और पर्दों का उच्चारण करते हुए देवता के समान हो जाते हैं, जहाँ निरन्तर होने वाले यज्ञ-धूम से व्याप्त होने के कारण आकाश-मंडल मेघों से धुलते रहने पर भी अपनी कालिमा नहीं छोड़ते, जहाँ उपाध्याय के पास आकर छात्र जन्म कालीन अभ्यास से ही सम्पूर्ण कलाएँ स्वतः पढ़ लेते हैं तथा जहाँ मणिकेश्वर नाम से प्रसिद्ध भगवान चन्द्रशेखर देहधारियों को वरदान देने के लिए नित्य निवास करते हैं।
काश्मीर के राजा मणिकेश्वर ने दिग्विजय में समस्त राजाओं को जीतकर भगवान शिव का पूजन किया था, तभी से उनका नाम मणिकेश्वर हो गया था, उन्हीं के मन्दिर के दरवाजे पर महात्मा रैक्व एक छोटी सी गाड़ी पर बैठे अपने अंगों को खुजलाते हुए वृक्ष की छाया का सेवन कर रहे थे, इसी अवस्था में सारथी ने उन्हें देखा, राजा के बताये हुए भिन्न-भिन्न चिह्नों से उसने शीघ्र ही रैक्व को पहचान लिया और उनके चरणों में प्रणाम करके कहाः "ब्राह्मण ! आप किस स्थान पर रहते हैं? आपका पूरा नाम क्या है? आप तो सदा स्वच्छंद विचरने वाले हैं, फिर यहाँ किसलिए ठहरे हैं? इस समय आपका क्या करने का विचार है?"
सारथी के ये वचन सुनकर परमानन्द में निमग्न महात्मा रैक्व ने कुछ सोचकर उससे कहाः "यद्यपि हम पूर्णकाम हैं – हमें किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, तथापि कोई भी हमारी मनोवृत्ति के अनुसार परिचर्या कर सकता है," रैक्व के हार्दिक अभिप्राय को आदप-पूर्वक ग्रहण करके सारथी धीरे से राजा के पास चल दिया, वहाँ पहुँचकर राजा को प्रणाम करके उसने हाथ जोड़कर सारा समाचार निवदेन किया, उस समय स्वामी के दर्शन से उसके मन में बड़ी प्रसन्नता थी, सारथि के वचन सुनकर राजा के नेत्र आश्चर्य से चकित हो उठे।
उनके हृदय में रैक्व का सत्कार करने की श्रद्धा जागृत हुई, उन्होंने दो खच्चरियों से जुती हुई गाड़ी लेकर यात्रा की, साथ ही मोती के हार, अच्छे-अच्छे वस्त्र और एक सहस्र गौएँ भी ले लीं, काश्मीर-मण्डल में महात्मा रैक्व जहाँ रहते थे उस स्थान पर पहुँच कर राजा ने सारी वस्तुएँ उनके आगे निवेदन कर दीं और पृथ्वी पर पड़कर साष्टांग प्रणाम किया, महात्मा रैक्व अत्यन्त भक्ति के साथ चरणों में पड़े हुए राजा जानश्रुति पर कुपित हो उठे और बोलेः "रे शूद्र ! तू दुष्ट राजा है, क्या तू मेरा वृत्तान्त नहीं जानता? यह खच्चरियों से जुती हुई अपनी ऊँची गाड़ी ले जा, ये वस्त्र, ये मोतियों के हार और ये दूध देने वाली गौएँ भी स्वयं ही ले जा," इस तरह आज्ञा देकर रैक्व ने राजा के मन में भय उत्पन्न कर दिया, तब राजा ने शाप के भय से महात्मा रैक्व के दोनों चरण पकड़ लिए और भक्ति-पूर्वक कहाः "ब्राह्मण ! मुझ पर प्रसन्न होइये, भगवन ! आपमें यह अदभत माहात्म्य कैसे आया? प्रसन्न होकर मुझे ठीक-ठीक बताइये।"
रैक्व ने कहाः राजन ! मैं प्रतिदिन गीता के छठे अध्याय का जप करता हूँ, इसी से मेरी तेजोराशि देवताओं के लिए भी दुःसह है,तदनन्तर परम बुद्धिमान राजा जानश्रुति ने यत्नपूर्वक महात्मा रैक्व से गीता के छठे अध्याय का अभ्यास किया, इससे उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई, रैक्व पूर्ववत् मोक्ष-दायक गीता के छठे अध्याय का जप जारी रखते हुए भगवान मणिकेश्वर के समीप आनन्द मग्न हो रहने लगे, हंस का रूप धारण करके वरदान देने के लिए आये हुए देवता भी विस्मित होकर स्वेच्छानुसार चले गये, जो मनुष्य सदा इस एक ही अध्याय का जप करता है, वह भी भगवान विष्णु के स्वरूप को प्राप्त होता है – इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

Tuesday, 3 November 2015

गीता के पंचम अध्याय का माहात्म्य

श्री भगवान कहते हैं: हे देवी! अब सब लोगों द्वारा सम्मानित पाँचवें अध्याय का माहात्म्य संक्षेप में बतलाता हूँ, सावधान होकर सुनो। मद्र देश में पुरुकुत्सपुर नामक एक नगर है, उसमें पिंगल नामक एक ब्राह्मण रहता था, वह वेदपाठी ब्राह्मणों के विख्यात वंश में, जो सर्वदा निष्कलंक था, उत्पन्न हुआ था, किंतु अपने कुल के लिए उचित वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय को छोड़कर ढोल बजाते हुए उसने नाच-गान में मन लगाया, गीत, नृत्य और बाजा बजाने की कला में परिश्रम कर के पिंगल ने बड़ी प्रसिद्धी प्राप्त कर ली और उसी से उसका राज भवन में भी प्रवेश हो गया।

वह राजा के साथ रहने लगा, स्त्रियों के सिवा और कहीं उसका मन नहीं लगता था, धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जाने से उच्छ्रंखल होकर वह एकान्त में राजा से दूसरों के दोष बतलाने लगा, पिंगल की एक स्त्री थी, जिसका नाम था अरुणा, वह नीच कुल में उत्पन्न हुई थी और कामी पुरुषों के साथ विहार करने की इच्छा से सदा उन्हीं की खोज में घूमा करती थी, उसने पति को अपने मार्ग का कण्टक समझकर एक दिन आधी रात में घर के भीतर ही उसका सिर काटकर मार डाला और उसकी लाश को जमीन में गाड़ दिया, इस प्रकार प्राणों से वियुक्त होने पर वह यमलोक पहुँचा और भीषण नरकों का उपभोग करके निर्जन वन में गिद्ध हुआ।

अरुणा भी भगन्दर रोग से अपने सुन्दर शरीर को त्याग कर घोर नरक भोगने के पश्चात उसी वन में शुकी हुई, एक दिन वह दाना चुगने की इच्छा से इधर उधर फुदक रही थी, इतने में ही उस गिद्ध ने पूर्वजन्म के वैर का स्मरण करके उसे अपने तीखे नखों से फाड़ डाला, शुकी घायल होकर पानी से भरी हुई मनुष्य की खोपड़ी में गिरी, गिद्ध पुनः उसकी ओर झपटा, इतने में ही जाल फैलाने वाले बहेलियों ने उसे भी बाणों का निशाना बनाया, उसकी पूर्वजन्म की पत्नी शुकी उस खोपड़ी के जल में डूबकर प्राण त्याग चुकी थी, फिर वह क्रूर पक्षी भी उसी में गिर कर डूब गया।

यमराज के दूत उन दोनों को यमलोक में ले गये, वहाँ अपने पूर्वकृत पाप कर्म को याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे, तदनन्तर यमराज ने जब उनके घृणित कर्मों पर दृष्टिपात किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि मृत्यु के समय अकस्मात् खोपड़ी के जल में स्नान करने से इन दोनों का पाप नष्ट हो चुका है, तब उन्होंने उन दोनों को मनोवांछित लोक में जाने की आज्ञा दी, यह सुनकर अपने पाप को याद करते हुए वे दोनों बड़े विस्मय में पड़े और पास जाकर धर्मराज के चरणों में प्रणाम करके पूछने लगेः "भगवन ! हम दोनों ने पूर्वजन्म में अत्यन्त घृणित पाप का संचय किया है, फिर हमें मनोवाञ्छित लोकों में भेजने का क्या कारण है?"

यमराज ने कहा: गंगा के किनारे वट नामक एक उत्तम ब्रह्म-ज्ञानी रहते थे, वे एकान्तवासी, ममतारहित, शान्त, विरक्त और किसी से भी द्वेष न रखने वाले थे, प्रतिदिन गीता के पाँचवें अध्याय का जप करना उनका सदा नियम था, पाँचवें अध्याय को श्रवण कर लेने पर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, उसी पुण्य के प्रभाव से शुद्ध चित्त होकर उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया था, गीता के पाठ से जिनका शरीर निर्मल हो गया था, जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे, उन्ही महात्मा की खोपड़ी का जल पाकर तुम दोनों पवित्र हो गये, अतः अब तुम दोनों मनोवाञ्छित लोकों को जाओ, क्योंकि गीता के पाँचवें अध्याय के माहात्म्य से तुम दोनों शुद्ध हो गये हो।

श्री भगवान कहते हैं: सबके प्रति समान भाव रखने वाले धर्मराज के द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर दोनों बहुत प्रसन्न हुए और विमान पर बैठकर वैकुण्ठधाम को चले गये।


॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

गीता के चतुर्थ अध्याय का माहात्म्य

श्रीभगवान कहते हैं: प्रिये ! अब मैं चौथे अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, सुनो। गंगा के तट पर वाराणसी नाम की एक पुरी है, वहाँ विश्वनाथ जी के मन्दिर में भरत नाम के एक योग-निष्ठ महात्मा रहते थे, जो प्रतिदिन आत्म-चिन्तन में तत्पर हो आदर-पूर्वक गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ किया करते थे, उसके अभ्यास से उनका मन निर्मल हो गया था, वे सर्दी- गर्मी आदि द्वन्द्वों से कभी व्यथित नहीं होते थे।

एक समय की बात है, वे तपोधन नगर की सीमा में स्थित देवताओं का दर्शन करने की इच्छा से भ्रमण करते हुए नगर से बाहर निकल गये, वहाँ बेर के दो वृक्ष थे, उन्हीं की जड़ में वे विश्राम करने लगे, एक वृक्ष की जड़ मे उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्ष के मूल में उनका पैर टिका हुआ था, थोड़ी देर बाद जब वे तपस्वी चले गये, तब बेर के वे दोनों वृक्ष पाँच-छः दिनों के भीतर ही सूख गये, उनमें पत्ते और डालियाँ भी नहीं रह गयीं, तत्पश्चात् वे दोनों वृक्ष कहीं ब्राह्मण के पवित्र गृह में दो कन्याओं के रूप में उत्पन्न हुए।

वे दोनों कन्याएँ जब बढ़कर सात वर्ष की हो गयीं, तब एक दिन उन्होंने दूर देशों से घूमकर आते हुए भरत मुनि को देखा, उन्हें देखते ही वे दोनों उनके चरणों में पड़ गयी और मीठी वाणी में बोलीं- 'मुनि ! आपकी ही कृपा से हम दोनों का उद्धार हुआ है, हमने बेर की योनि त्यागकर मानव-शरीर प्राप्त किया है,' उनके इस प्रकार कहने पर मुनि को बड़ा विस्मय हुआ, उन्होंने पूछाः 'पुत्रियो ! मैंने कब और किस साधन से तुम्हें मुक्त किया था? साथ ही यह भी बताओ कि तुम्हारे बेर होने के क्या कारण था? क्योंकि इस विषय में मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है।'

तब वे कन्याएँ पहले उन्हे अपने बेर हो जाने का कारण बतलाती हुई बोलीं- 'मुनि ! गोदावरी नदी के तट पर छिन्नपाप नाम का एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्यों को पुण्य प्रदान करने वाला है, वह पावनता की चरम सीमा पर पहुँचा हुआ है, उस तीर्थ में सत्यतपा नामक एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे, वे ग्रीष्म ऋतु में प्रज्जवलित अग्नियों के बीच में बैठते थे।

वारिश के समय में जल की धाराओं से उनके सिर के बाल सदा भीगे ही रहते थे तथा जाड़े के समय में जल में निवास करने के कारण उनके शरीर में हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे, वे बाहर भीतर से सदा शुद्ध रहते, समय पर तपस्या करते तथा मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए परम शान्ति प्राप्त करके आत्मा में ही रमण करते थे, वे अपनी विद्वत्ता के द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे, उसे सुनने के लिए साक्षात् ब्रह्मा जी भी प्रति-दिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न करते थे, ब्रह्माजी के साथ उनका संकोच नहीं रह गया था, अतः उनके आने पर भी वे सदा तपस्या में मग्न रहते थे।

परमात्मा के ध्यान में निरन्तर संलग्न रहने के कारण उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी, सत्यतपा को जीवन-मुक्त के समान मान कर इन्द्र को अपने समृद्धिशाली पद के सम्बन्ध में कुछ भय हुआ, तब उन्होंने उनकी तपस्या में सैंकड़ों विघ्न डालने आरम्भ किये, अप्सराओं के समुदाय से हम दोनों को बुलाकर इन्द्र ने इस प्रकार आदेश दियाः 'तुम दोनों उस तपस्वी की तपस्या में विघ्न डालो, जो मुझे इन्द्र-पद से हटा कर स्वयं स्वर्ग का राज्य भोगना चाहता है।'

"इन्द्र का यह आदेश पाकर हम दोनों उनके सामने से चलकर गोदावरी के तीर पर, जहाँ वे मुनि तपस्या करते थे, आयीं, वहाँ मन्द और गम्भीर स्वर से बजते हुए मृदंग तथा मधुर वेणुनाद के साथ हम दोनों ने अन्य अप्सराओं सहित मधुर स्वर में गाना आरम्भ किया, इतना ही नहीं उन योगी महात्मा को वश में करने के लिए हम लोग स्वर, ताल और लय के साथ नृत्य भी करने लगीं, बीच-बीच में जरा-जरा सा अंचल खिसकने पर उन्हें हमारी छाती भी दिख जाती थी, हम दोनों की उन्मत्त गति काम-भाव का जगाने वाली थी, किंतु उसने उन निर्विकार चित्तवाले महात्मा के मन में क्रोध का संचार कर दिया, तब उन्होंने हाथ से जल छोड़कर हमें क्रोधपूर्वक शाप दियाः 'अरी ! तुम दोनों गंगाजी के तट पर बेर के वृक्ष हो जाओ।'

यह सुन कर हम लोगों ने बड़ी विनय के साथ कहाः 'महात्मन् ! हम दोनों पराधीन थीं, अतः हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है उसे आप क्षमा करें,' यह कह कर हमने मुनि को प्रसन्न कर लिया, तब उन पवित्र चित्त वाले मुनि ने हमारे शाप उद्धार की अवधि निश्चित करते हुए कहाः 'भरत मुनि के आने तक ही तुम पर यह शाप लागू होगा, उसके बाद तुम लोगों का मृत्यु-लोक में जन्म होगा और पूर्व-जन्म की स्मृति बनी रहेगी। "मुनि ! जिस समय हम दोनों बेर-वृक्ष के रूप में खड़ी थीं, उस समय आपने हमारे समीप आकर गीता के चौथे अध्याय का जप करते हुए हमारा उद्धार किया था, अतः हम आपको प्रणाम करती हैं, आपने केवल शाप ही से नहीं, इस भयानक संसार से भी गीता के चतुर्थ अध्याय के पाठ द्वारा हमें मुक्त कर दिया।"

श्रीभगवान कहते हैं: उन दोनों के इस प्रकार कहने पर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजित हो विदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये तथा वे कन्याएँ भी बड़े आदर के साथ प्रति-दिन गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ करने लगीं, जिससे उनका उद्धार हो गया।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

गीता के अध्याय तृतीय का माहात्म्य

श्री भगवान कहते हैं: प्रिये ! जनस्थान में एक जड़ नामक ब्राह्मण था, जो कौशिक वंश में उत्पन्न हुआ था, उसने अपना जातीय धर्म छोड़कर व्यापारिक वृत्ति में मन लगाया उसे परायी स्त्रियों के साथ व्यभिचार करने का व्यसन पड़ गया था, वह सदा जुआ खेलता, शराब पीता और शिकार खेलकर जीवों की हिंसा किया करता था।

इसी प्रकार उसका समय बीतता था, धन नष्ट हो जाने पर वह व्यापार के लिए बहुत दूर उत्तर दिशा में चला गया, वहाँ से धन कमाकर घर की ओर लौटा, बहुत दूर तक का रास्ता उसने तय कर लिया था, एक दिन सूर्यास्त हो जाने पर जब दसों दिशाओं में अन्धकार फैल गया, तब एक वृक्ष के नीचे उसे लुटेरों ने धर दबाया और शीघ्र ही उसके प्राण ले लिए, उसके धर्म का लोप हो गया था, इसलिए वह बड़ा भयानक प्रेत हुआ।

उसका पुत्र बड़ा ही धर्मात्मा और वेदों का विद्वान था, उसने अब तक पिता के लौट आने की राह देखी, जब वे नहीं आये, तब उनका पता लगाने के लिए वह स्वयं भी घर छोड़कर चल दिया, वह प्रतिदिन खोज करता, मगर राहगीरों से पूछने पर भी उसे उनका कुछ समाचार नहीं मिलता था, तदनन्तर एक दिन एक व्यक्ति से उसकी भेंट हुई, जो उसके पिता का सहायक था, उससे सारा हाल जानकर उसने पिता की मृत्यु पर बहुत शोक किया, वह बड़ा बुद्धिमान था।

बहुत कुछ सोच-विचार कर पिता का पारलौकिक कर्म करने की इच्छा से आवश्यक सामग्री साथ ले उसने काशी जाने का विचार किया, मार्ग में सात-आठ मुकाम डाल कर वह नौवें दिन उसी वृक्ष के नीचे आ पहुँचा जहाँ उसके पिता मारे गये थे, उस स्थान पर उसने संध्या-वन्दन की और गीता के तीसरे अध्याय का पाठ किया।

उसी समय आकाश में बड़ी भयानक आवाज हुई, उसने पिता को भयंकर आकार में देखा फिर तुरन्त ही अपने सामने आकाश में उसे एक सुन्दर विमान दिखाई दिया, जो तेज से व्याप्त था, उसमें अनेकों क्षुद्र घंटिकाएँ लगी थीं, उसके तेज से समस्त दिशाएँ आलोकित हो रही थीं, यह दृश्य देखकर उसके चित्त की व्यग्रता दूर हो गयी, उसने विमान पर अपने पिता को दिव्य रूप धारण किये विराजमान देखा, उनके शरीर पर पीताम्बर शोभा पा रहा था और मुनिजन उनकी स्तुति कर रहे थे, उन्हें देखते ही पुत्र ने प्रणाम किया, तब पिता ने भी उसे आशीर्वाद दिया।

तत्पश्चात् उसने पिता से यह सारा वृत्तान्त पूछा, उसके उत्तर में पिता ने सब बातें बताकर इस प्रकार कहना आरम्भ कियाः 'बेटा ! दैववश मेरे निकट गीता के तृतीय अध्याय का पाठ करके तुमने इस शरीर के द्वारा किए हुए दुषकर्म-बन्धन से मुझे छुड़ा दिया, अतः अब घर लौट जाओ क्योंकि जिसके लिए तुम काशी जा रहे थे, वह प्रयोजन इस समय तृतीय अध्याय के पाठ से ही सिद्ध हो गया है।'

पिता के इस प्रकार कहने पर पुत्र ने पूछाः 'तात ! मेरे हित का उपदेश दीजिए तथा और कोई कार्य जो मेरे लिए करने योग्य हो बतलाइये,' तब पिता ने कहाः 'अनघ ! तुम्हे यही कार्य फिर करना है, मैंने जो कर्म किये हैं, वही मेरे भाई ने भी किये थे, इससे वे घोर नरक में पड़े हैं, उनका भी तुम्हे उद्धार करना चाहिए तथा मेरे कुल के और भी जितने लोग नरक में पड़े हैं, उन सबका भी तुम्हारे द्वारा उद्धार हो जाना चाहिए, यही मेरा मनोरथ है, बेटा ! जिस साधन के द्वारा तुमने मुझे संकट से छुड़ाया है, उसी का अनुष्ठान औरों के लिए भी करना उचित है, उसका अनुष्ठान करके उससे होने वाला पुण्य उन नारकीय जीवों को संकल्प करके दे दो, इससे वे समस्त पूर्वज मेरी ही तरह यातना से मुक्त हो अल्प समय में ही श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त हो जायेंगे।'

पिता का यह संदेश सुनकर पुत्र ने कहाः 'तात ! यदि ऐसी बात है और आपकी भी ऐसी रूचि है तो मैं समस्त नारकी जीवों का नरक से उद्धार कर दूँगा।' यह सुनकर उसके पिता बोलेः 'बेटा एवमस्तु ! तुम्हारा कल्याण हो, मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो गया,' इस प्रकार पुत्र को आश्वासन देकर उसके पिता भगवान विष्णु के परम धाम को चले गये, तत्पश्चात् वह भी लौटकर जनस्थान में आया और परम सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण के मन्दिर में उनके समक्ष बैठकर पिता के आदेशानुसार गीता के तीसरे अध्याय का पाठ करने लगा, उसने नारकी जीवों का उद्धार करने की इच्छा से गीता के पाठ का सारा पुण्य संकल्प करके दे दिया।

इसी बीच में भगवान विष्णु के दूत यातना भोगने वाले नरक की जीवों को छुड़ाने के लिए यमराज के पास गये, यमराज ने नाना प्रकार के सत्कारों से उनका पूजन किया और कुशलता पूछी, वे बोलेः 'धर्मराज ! हम लोगों के लिए सब ओर आनन्द ही आनन्द है,' इस प्रकार सत्कार करके पितृ-लोक के सम्राट परम बुद्धिमान यम ने विष्णु दूतों से यमलोक में आने का कारण पूछा।

तब विष्णुदूतों ने कहाः यमराज ! शेषशय्या पर शयन करने वाले भगवान विष्णु ने हम लोगों को आपके पास कुछ संदेश देने के लिए भेजा है, भगवान हम लोगों के मुख से आपकी कुशल पूछते हैं और यह आज्ञा देते हैं कि 'आप नरक में पड़े हुए समस्त प्राणियों को छोड़ दें।'

अमित तेजस्वी भगवान विष्णु का यह आदेश सुनकर यम ने मस्तक झुकाकर उसे स्वीकार किया और मन ही मन कुछ सोचा, तत्पश्चात् नारकीय जीवों को नरक से मुक्त देखकर उनके साथ ही वे भगवान विष्णु के वास स्थान को चले, यमराज श्रेष्ठ विमान के द्वारा जहाँ क्षीरसागर हैं, वहाँ जा पहुँचे, उसके भीतर कोटि-कोटि सूर्यों के समान कान्तिमान नील कमल दल के समान श्यामसुन्दर लोकनाथ जगदगुरु श्री हरि का उन्होंने दर्शन किया, भगवान का तेज उनकी शय्या बने हुए शेषनाग के फणों की मणियों के प्रकाश से दुगना हो रहा था, वे आनन्दयुक्त दिखाई दे रहे थे, उनका हृदय प्रसन्नता से परिपूर्ण था।

भगवती लक्ष्मी अपनी सरल चितवन से प्रेम-पूर्वक उन्हें बार-बार निहार रहीं थीं, चारों ओर योगीजन भगवान की सेवा में खड़े थे, ध्यानस्थ होने के कारण उन योगियों की आँखों के तारे निश्चल प्रतीत होते थे, देवराज इन्द्र अपने विरोधियों को परास्त करने के उद्देश्य से भगवान की स्तुति कर रहे थे, ब्रह्माजी के मुख से निकले हुए वेदान्त-वाक्य मूर्तिमान होकर भगवान के गुणों का गान कर रहे थे, भगवान पूर्णतः संतुष्ट होने के साथ ही समस्त योनियों की ओर से उदासीन प्रतीत होते थे, जीवों में से जिन्होंने योग-साधन के द्वारा अधिक पुण्य संचय किया था।

उन सबको एक ही साथ वे कृपादृष्टि से निहार रहे थे, भगवान अपने स्वरूप भूत अखिल चराचर जगत को आनन्दपूर्ण दृष्टि से आनन्दित कर रहे थे, शेषनाग की प्रभा से उद्भासित और सर्वत्र व्यापक दिव्य विग्रह धारण किये नील कमल के सदृश श्याम वर्णवाले श्रीहरि ऐसे जान पड़ते थे, मानो चाँदनी से घिरा हुआ आकाश सुशोभित हो रहा हो, इस प्रकार भगवान की झाँकी के दर्शन करके यमराज अपनी विशाल बुद्धि के द्वारा उनकी स्तुति करने लगे।

यमराज बोलेः सम्पूर्ण जगत का निर्माण करने वाले परमेश्वर ! आपका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है, आपके मुख से ही वेदों का प्रादुर्भाव हुआ है, आप ही विश्वस्वरूप और इसके विधायक ब्रह्मा हैं, आपको नमस्कार है, अपने बल और वेग के कारण जो अत्यन्त दुर्धर्ष प्रतीत होते हैं, ऐसे मदान्धों का अभिमान चूर्ण करने वाले भगवान विष्णु को नमस्कार है, पालन के समय सत्त्वमय शरीर धारण करने वाले, विश्व के आधारभूत, सर्वव्यापी श्रीहरि को नमस्कार है, समस्त देहधारियों की पातक-राशि को दूर करने वाले परमात्मा को प्रणाम है।

जिनके ललाटवर्ती नेत्र के तनिक-सा खुलने पर भी आग की लपटें निकलने लगती हैं, उन रूद्र रूपधारी आप परमेश्वर को नमस्कार है, आप सम्पूर्ण विश्व के गुरु, आत्मा और महेश्वर हैं, अतः समस्त वैश्नवजनों को संकट से मुक्त करके उन पर अनुग्रह करते हैं, आप माया से विस्तार को प्राप्त हुए अखिल विश्व में व्याप्त होकर भी कभी माया अथवा उससे उत्पन्न होने वाले गुणों से मोहित नहीं होते, माया तथा मायाजनित गुणों के बीच में स्थित होने पर भी आप पर उनमें से किसी का प्रभाव नहीं पड़ता, आपकी महिमा का अन्त नहीं है, क्योंकि आप असीम हैं फिर आप वाणी के विषय कैसे हो सकते हैं? अतः मेरा मौन रहना ही उचित है।

इस प्रकार स्तुति करके यमराज ने हाथ जोड़कर कहाः 'जगदगुरु ! आपके आदेश से इन जीवों को गुणरहित होने पर भी मैंने छोड़ दिया है, अब मेरे योग्य और जो कार्य हो, उसे बताइये,' उनके यों कहने पर भगवान मधुसूदन मेघ के समान गम्भीर वाणी द्वारा मानो अमृतरस से सींचते हुए बोलेः 'धर्मराज ! तुम सबके प्रति समान भाव रखते हुए लोकों का पाप से उद्धार कर रहे हो, तुम पर देहधारियों का भार रखकर मैं निश्चिन्त हूँ, अतः तुम अपना काम करो और अपने लोक को लौट जाओ।' यह कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये, यमराज भी अपनी पुरी को लौट आये, तब वह ब्राह्मण अपनी जाति के और समस्त नारकी जीवों का नरक से उद्धार करके स्वयं भी श्रेष्ठ विमान द्वारा श्री विष्णुधाम को चला गया।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥