श्री भगवान कहते हैं: सुमुखि ! अब मैं छठे अध्याय का
माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसे सुनने वाले मनुष्यों के लिए मुक्ति आसान हो
जाती है, गोदावरी नदी के तट पर प्रतिष्ठानपुर (पैठण) नामक एक विशाल नगर है,
जहाँ मैं पिप्लेश के नाम से विख्यात होकर रहता हूँ, उस नगर में जनश्रुति
नामक एक राजा रहते थे, जो भूमण्डल की प्रजा को अत्यन्त प्रिये थे, उनका
प्रताप मार्तण्ड-मण्डल के प्रचण्ड तेज के समान जान पड़ता था।
प्रतिदिन होने वाले उनके यज्ञ के धुएँ से नन्दनवन के
कल्पवृक्ष इस प्रकार काले पड़ गये थे, मानो राजा की असाधारण दान-शीलता
देखकर वे लज्जित हो गये हों, उनके यज्ञ में प्राप्त पुरोडाश के रसास्वादन
में सदा आसक्त होने के कारण देवता लोग कभी प्रतिष्ठानपुर को छोड़कर बाहर
नहीं जाते थे, उनके दान के समय छोड़े हुए जल की धारा, प्रताप-रूपी तेज और
यज्ञ के धूमों से पुष्ट होकर मेघ ठीक समय पर वर्षा करते थे।
उस राजा के शासन काल में खेती में होने वाले छः प्रकार के
उपद्रवों के लिए कहीं थोड़ा भी स्थान नहीं मिलता था और अच्छी नीतियों का
सर्वत्र प्रसार होता था, वे बावडी़, कुएँ और पोखरें खुदवाने के बहाने मानो
प्रतिदिन पृथ्वी के भीतर की निधियों का अवलोकन करते थे, एक समय राजा के
दान, तप, यज्ञ और प्रजा-पालन से संतुष्ट होकर स्वर्ग के देवता उन्हें वर
देने के लिए आये, वे कमल-नाल के समान उज्जवल हंसों का रूप धारण कर अपनी पँख
हिलाते हुए आकाश मार्ग से चलने लगे,
उड़ते हुए वे सभी हंस परस्पर बातचीत भी करते जाते थे, उनमें
से भद्राश्व आदि दो-तीन हंस वेग से उड़कर आगे निकल गये, तब पीछे वाले हंसों
ने आगे जाने वालों को सम्बोधित करके कहाः "अरे भाई भद्राश्व ! तुम लोग वेग
से चलकर आगे क्यों हो गये? यह मार्ग बड़ा दुर्गम है, इसमें हम सबको साथ
मिलकर चलना चाहिए, क्या तुम्हे दिखाई नहीं देता, यह सामने ही पुण्यमूर्ति
महाराज जानश्रुति का तेजपुंज अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रकाशमान हो रहा है?
उस तेज से भस्म होने की आशंका है, अतः सावधान होकर चलना चाहिए।" पीछेवाले
हंसों के ये वचन सुनकर आगे वाले हंस हँस पड़े और उच्च स्वर से उनकी बातों
की अवहेलना करते हुए बोलेः "अरे भाई ! क्या इस राजा जानश्रुति का तेज
ब्रह्मवादी महात्मा रैक्व के तेज से भी अधिक तीव्र है?"
हंसों की ये बातें सुनकर राजा जानश्रुति अपने ऊँचे महल की छत
से उतर गये और सुखपूर्वक आसन पर विराजमान हो अपने सारथि को बुलाकर बोलेः
"जाओ, महात्मा रैक्व को यहाँ ले आओ", राजा का यह अमृत के समान वचन सुनकर मह
नामक सारथी प्रसन्नता प्रकट करता हुआ नगर से बाहर निकला, सबसे पहले उसने
मुक्ति दायिनी काशी पुरी की यात्रा की, जहाँ जगत के स्वामी भगवान विश्वनाथ
मनुष्यों को उपदेश दिया करते हैं, उसके बाद वह गया क्षेत्र में पहुँचा,
जहाँ प्रफुल्ल नेत्रों वाले भगवान गदाधर सम्पूर्ण लोकों का उद्धार करने के
लिए निवास करते हैं।
तदनन्तर नाना तीर्थों में भ्रमण करता हुआ सारथी पाप नाशिनी
मथुरा पुरी में गया, यह भगवान श्री कृष्ण का आदि स्थान है, जो परम महान तथा
मोक्ष प्रदान कराने वाला है, वेद और शास्त्रों में वह तीर्थ त्रिभुवन-पति
भगवान गोविन्द के अवतार स्थान के नाम से प्रसिद्ध है, नाना देवता और
ब्रह्मर्षि उसका सेवन करते हैं, मथुरा नगर यमुना के किनारे शोभा पाता है,
उसकी आकृति अर्द्धचन्द्र के समान प्रतीत होती है, वह सब तीर्थों के निवास
से परिपूर्ण है, परम आनन्द प्रदान करने के कारण सुन्दर प्रतीत होता है,
गोवर्धन पर्वत होने से मथुरा मण्डल की शोभा और भी बढ़ गयी है, वह पवित्र
वृक्षों और लताओं से आवृत्त है, उसमें बारह वन हैं, वह परम पुण्यमय था सबको
विश्राम देने वाले श्रुतियों के सारभूत भगवान श्रीकृष्ण की आधार भूमि है।
तत्पश्चात मथुरा से पश्चिम और उत्तर दिशा की ओर बहुत दूर तक
जाने पर सारथी को काश्मीर नामक नगर दिखाई दिया, जहाँ शंख के समान उज्जवल
गगनचुम्बी महलों की पंक्तियाँ भगवान शंकर के अट्टहास की शोभा पाती हैं,
जहाँ ब्राह्मणों के शास्त्रीय आलाप सुनकर मूक मनुष्य भी सुन्दर वाणी और
पर्दों का उच्चारण करते हुए देवता के समान हो जाते हैं, जहाँ निरन्तर होने
वाले यज्ञ-धूम से व्याप्त होने के कारण आकाश-मंडल मेघों से धुलते रहने पर
भी अपनी कालिमा नहीं छोड़ते, जहाँ उपाध्याय के पास आकर छात्र जन्म कालीन
अभ्यास से ही सम्पूर्ण कलाएँ स्वतः पढ़ लेते हैं तथा जहाँ मणिकेश्वर नाम से
प्रसिद्ध भगवान चन्द्रशेखर देहधारियों को वरदान देने के लिए नित्य निवास
करते हैं।
काश्मीर के राजा मणिकेश्वर ने दिग्विजय में समस्त राजाओं को
जीतकर भगवान शिव का पूजन किया था, तभी से उनका नाम मणिकेश्वर हो गया था,
उन्हीं के मन्दिर के दरवाजे पर महात्मा रैक्व एक छोटी सी गाड़ी पर बैठे
अपने अंगों को खुजलाते हुए वृक्ष की छाया का सेवन कर रहे थे, इसी अवस्था
में सारथी ने उन्हें देखा, राजा के बताये हुए भिन्न-भिन्न चिह्नों से उसने
शीघ्र ही रैक्व को पहचान लिया और उनके चरणों में प्रणाम करके कहाः
"ब्राह्मण ! आप किस स्थान पर रहते हैं? आपका पूरा नाम क्या है? आप तो सदा
स्वच्छंद विचरने वाले हैं, फिर यहाँ किसलिए ठहरे हैं? इस समय आपका क्या
करने का विचार है?"
सारथी के ये वचन सुनकर परमानन्द में निमग्न महात्मा रैक्व ने
कुछ सोचकर उससे कहाः "यद्यपि हम पूर्णकाम हैं – हमें किसी वस्तु की
आवश्यकता नहीं है, तथापि कोई भी हमारी मनोवृत्ति के अनुसार परिचर्या कर
सकता है," रैक्व के हार्दिक अभिप्राय को आदप-पूर्वक ग्रहण करके सारथी धीरे
से राजा के पास चल दिया, वहाँ पहुँचकर राजा को प्रणाम करके उसने हाथ जोड़कर
सारा समाचार निवदेन किया, उस समय स्वामी के दर्शन से उसके मन में बड़ी
प्रसन्नता थी, सारथि के वचन सुनकर राजा के नेत्र आश्चर्य से चकित हो उठे।
उनके हृदय में रैक्व का सत्कार करने की श्रद्धा जागृत हुई,
उन्होंने दो खच्चरियों से जुती हुई गाड़ी लेकर यात्रा की, साथ ही मोती के
हार, अच्छे-अच्छे वस्त्र और एक सहस्र गौएँ भी ले लीं, काश्मीर-मण्डल में
महात्मा रैक्व जहाँ रहते थे उस स्थान पर पहुँच कर राजा ने सारी वस्तुएँ
उनके आगे निवेदन कर दीं और पृथ्वी पर पड़कर साष्टांग प्रणाम किया, महात्मा
रैक्व अत्यन्त भक्ति के साथ चरणों में पड़े हुए राजा जानश्रुति पर कुपित हो
उठे और बोलेः "रे शूद्र ! तू दुष्ट राजा है, क्या तू मेरा वृत्तान्त नहीं
जानता? यह खच्चरियों से जुती हुई अपनी ऊँची गाड़ी ले जा, ये वस्त्र, ये
मोतियों के हार और ये दूध देने वाली गौएँ भी स्वयं ही ले जा," इस तरह आज्ञा
देकर रैक्व ने राजा के मन में भय उत्पन्न कर दिया, तब राजा ने शाप के भय
से महात्मा रैक्व के दोनों चरण पकड़ लिए और भक्ति-पूर्वक कहाः "ब्राह्मण !
मुझ पर प्रसन्न होइये, भगवन ! आपमें यह अदभत माहात्म्य कैसे आया? प्रसन्न
होकर मुझे ठीक-ठीक बताइये।"
रैक्व ने कहाः राजन ! मैं प्रतिदिन गीता के छठे अध्याय का जप
करता हूँ, इसी से मेरी तेजोराशि देवताओं के लिए भी दुःसह है,तदनन्तर परम
बुद्धिमान राजा जानश्रुति ने यत्नपूर्वक महात्मा रैक्व से गीता के छठे
अध्याय का अभ्यास किया, इससे उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई, रैक्व पूर्ववत्
मोक्ष-दायक गीता के छठे अध्याय का जप जारी रखते हुए भगवान मणिकेश्वर के
समीप आनन्द मग्न हो रहने लगे, हंस का रूप धारण करके वरदान देने के लिए आये
हुए देवता भी विस्मित होकर स्वेच्छानुसार चले गये, जो मनुष्य सदा इस एक ही
अध्याय का जप करता है, वह भी भगवान विष्णु के स्वरूप को प्राप्त होता है –
इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥
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