Showing posts with label पोस्ट.७. Show all posts
Showing posts with label पोस्ट.७. Show all posts

Friday, 9 June 2017

गीता प्रबोधनी सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट.७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 
  
आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा: । 
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान् ॥१२॥  
 
वे आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर पदार्थों का भोग करने के लिये अन्यायपूर्वक धन-संचय करने की चेष्टा करते रहते हैं।  
 
व्याख्या- 
जब तक मनुष्य का सम्बन्ध शरीर-संसार के साथ रहता है, तब तक उसकी कामनाओं का अन्त नहीं आता। दूसरे अध्याय के इकतालीसवें श्लोक में भी आया है कि अव्यवसायी मनुष्यों की बुद्धियाँ अनन्त और बहुशाखाओं वाली होती हैं। कारण कि उन्होंने अविनाशी तत्त्व से विमुख होकर नाशवान को सत्ता और महत्ता दे दी तथा उसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लिया।  
आसुर स्वभाव वाले मनुष्य काम और क्रोध को स्वाभाविक मानते हैं। काम और क्रोध के सिवाय उन्हें और कुछ दीखता ही नहीं, इनसे आगे उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। मनुष्य समझता है कि क्रोध करने से दूसरा हमारे वश में रहेगा। परन्तु जो मजबूर, लाचार होकर हमारे वश में हुआ है वह कब तक वश में रहेगा? मौका पड़ते ही वह घात करेगा। अतः क्रोध का परिणाम बुरा ही होता है।

ॐ तत्सत् !